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जैन परम्परा में मंत्र-तंत्र :
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भूषिताभेरणैः सर्वैर्मुक्तकेशा निरम्बरा। पातु मां कामचाण्डाली कृष्णवर्णा चतुर्भुजा।। २।। फलकांचकलशकरा शाल्मलिदण्डोद्वमुरगोपेता। जयतात् त्रिभुवनवन्द्या जगति श्री कामचाण्डाली।। ३।। २२
अर्थात् - जो सब आभूषणों से भूषित है, वस्त्र-रहित नग्न है, जिसके सिर के बाल खुले हुए हैं, ऐसी श्यामवर्णा कामचाण्डाली मेरी रक्षा करें। जिनके हाथ में फल, कांच और कलश है, जो शाल्मलिदण्ड को लिये हुए हैं और सर्प से युक्त हैं, त्रिभुवन वन्दनीया कामचाण्डाली जयवंत हों। ९. मंत्राधिराज-कल्प
सागरचन्द्र ने इसे वि०सं० १२५० के आस-पास रचा था। यह ग्रन्थ 'जैनस्तोत्रसन्दोह', भाग-२ में प्रकाशित है।२३ चार सौ चौबीस पद्यों का यह ग्रन्थ पांच पटलों में विभाजित है। प्रथम पटल में पार्श्वनाथ को नमन एवं गुरु वन्दना करके रचना का उद्देश्य जिनभक्ति बताया गया है। प्रस्तावना के रूप में मंत्रदान-विधि का निरूपण है। दूसरे पटल में विषय निर्देष करते हुए मंत्राधिराज के बीजाक्षरों का प्रभाव कहा गया है। इसके पद्य सं०१३ में अभयदेवसूरि का तथा पद्य सं० १४ में पद्मदेव का नामोल्लेख है। तीसरे पटल में पार्श्वनाथ की स्तुति, १६ विद्यादेवियों, २४ तीर्थंकरों की माताओं, उनके २४ यक्षों और यक्षियों का कथन किया गया है। अनन्तर तीर्थंकरों के लांछन, उनके शरीर के वर्ण और ऊँचाई का निर्देश है। नवग्रहों और दशलोकपालों द्वारा तीर्थंकरों की सेवा करने का उल्लेख है। चौथे पटल में सकलीकरण, भूमि, जल
और वस्त्रशुद्धि के मंत्र, पांच मुद्राएँ, आत्मरक्षा, पार्श्वयक्ष, पार्श्वयक्षिणी, धरणेन्द्र, कमठ, जया, विजया, पद्मावती और क्षेत्रपाल के मंत्र बतलाये गये हैं। तत्पश्चात् ध्यान, पूजन, जप और होम का विधान वर्णित है। पाँचवें पटल में ऋतुओं, योगों, आसनों, मुद्राओं और यंत्रों के विशिष्ट ध्यान का निरूपण हुआ है। १०. मंत्रराज-रहस्य
विबुधचन्द्रसूरि के शिष्य सिंहतिलकसूरि इसके कर्ता हैं। ग्रन्थ का परिमाण आठ सौ श्लोक है। ग्रन्थ प्रशस्ति के अनुसार इसका रचना काल वि०सं० १३३२ है। ग्रन्थ पर लीलावती नामक स्वोपज्ञ संस्कृत वृत्ति है। इसमें अनेक गच्छों के सूरिमंत्रों का संग्रह किया गया है। यहाँ सूरिमंत्र के पांच पीठ बताये हैं। ग्रन्थ में एक हजार मंत्र होने का उल्लेख मिलता है।२४ जिनरत्नकोष (पृ० ३०) में भी इसका उल्लेख है। ११. वर्धमान-विद्या-कल्प
यह मंत्रराज-रहस्य' के कर्ता सिंहतिलकसूरि की रचना है। इसका रचनाकाल वि०सं० १३४० के लगभग है। ग्रन्थकार ने इसे अनेक प्रकरणों में विभक्त किया है।