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पाराशरस्मृति
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पराशर जी ने मानवीय सदाचार द्वारा आश्रम में आए हुए सब का स्वागत किया। व्यासजी ने पितृभक्ति से पराशरजी को प्रणाम कर निवेदन किया
१-१५ 'यवि जानासि मे भक्ति स्नेहाद्वा भक्तवत्सल ?
धर्म कथय मे तात ! अनुग्राह्योह्ययं तव" ॥ (पुत्र पिता से सर्वोच्च वस्तु क्या चाहता है यह समुदाचार इस
प्रश्न से सरलता से ज्ञात हो रहा है) व्यासजी कहते हैं कि भगवन् ! यदि मेरी भक्ति को आप जानते हैं या मेरे स्नेह को तो मुझे धर्म का उपदेश कीजिए जिससे मैं आपका अनुगृहीत होऊंगा। पुत्र पिता से सबसे बड़ा धन धर्म मांगता है यह भारत की संस्कृति है (एक ओर व्यासजी की पिता की धर्म जिज्ञासा, दूसरी ओर संसार में देखो पैतृक धन संपत्ति पर न्यायालयों में पुत्र पिता पर अभियोग चलाते हैं) इससे सांस्कृतिक जीवन, असांस्कृतिक जीवन का सरलता से ज्ञान हो जाएगा। संस्कृति उसे कहते हैं जिससे धर्म का ज्ञान माता, पिता, गुरु, बन्धुजनों को पूज्य मर्यादामय व्यवहार से कृति हो। व्यासजी ने विनम्र जिज्ञासा की-मनु, वसिष्ठ, कश्यप, गर्ग, गौतम, उशना, हारीत, याज्ञवल्क्य, कात्यायन, प्रचेता, आपस्तम्ब, शंख, लिखित आदि धर्मशास्त्र प्रणेताओं के धर्म निबन्ध सुनने पर भी वर्तमान कलियुग की धर्ममर्यादा बनाने में अपने को समर्थ समझकर आपके पास इन ऋषियों के साथ आया हूं कलियुग में धर्म को नष्टप्राय देख रहा हूं। अतः आपका तपोमय जीवन ही इस युग धर्म की व्यवस्था दे सकता है।
१६-२६ युग चतुष्टय की व्यवस्था धर्म मर्यादा का तारतम्य ।
२९ दान के प्रकरण में सेवा दान नहीं है वह सेवा का मूल्य है।
सत्ययुग में अस्थि में प्राण रहते थे, त्रेता में मांस में, द्वापर से रुधिर में और कलियुग में अन्न में प्राण रहते हैं।
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