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[ १२ ] अध्याय प्रधान विषय
पृष्ठाङ्क ऋषि कुशमयी धर्मपत्नी, कोई ऋषि काश की बनी पत्नी को प्रतिनिधि रूप में रखकर नित्यकर्म क्रिया करने की सद्गृहस्थ को आज्ञा देते हैं (१४७-४८)। होम के लिये गो घृत श्रेष्ठ वह न मिले तो माहिष घृत उसके न मिलने पर बकरी का घृत और उन सब के न मिलने पर साक्षात् तैल का व्यवहार करे ( १८६)। समय पर
आहुति देने का माहात्म्य ( १५०-१५२ ) । वेदाक्षरों को स्वार्थ में लानेवाले मनुष्य की निन्दा। छै प्रकार के वेदों को बेचनेवाले का गणन (१५३-१५८)। रविवार, शुक्रवार, मन्वादि चारों युगों में और मध्याह्न के बाद तुलसी न लावे । संक्रान्ति, दोनों पक्षों के अन्त में द्वादशी में और रात्रितथा दिन की सन्ध्या में तुलसी चयन का निषेध है (१६०)। तीर्थ में मन, वाणी और कर्म से कैसा भी पाप न करे और दान न लेवे क्योंकि वह सब दुर्जर है अतः अक्षम्य है । भृत (व्यवहार ) अमृत सत्य कर्तव्य पालन ऋत या प्रमृत से और सत्य-अनृत से जीविका कमावे (१६१-६३)।
किसी वस्तु को बिना पूछे लेने से पाप (१६४)। मनुजी ने वनस्पति, कन्द, मूल फल, अमिहोत्र के लिये काठ, तृण और गौओं के लिये घास ये अस्तेय बताये हैं। किन-किन लोगों से किसी भी रूप में कोई वस्तु न लेवें