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[ ५६ ] अध्याय प्रधान विषय
पृष्ठाक कर अवशिष्ट निर्मन्त्रक विधि करे और शुद्ध होने पर समन्त्रक विधि यथावत् करे ( ८२-८४ )।
औपासन अभी आरम्भ न हो और दूसरे दिन रजस्वला हो तो उसी प्रकार अमन्त्रक विधि एवं शुद्ध होने पर मन्त्रोच्चारण के साथ क्रिया करे ( ८५-६३)। आशौच में नित्यनैमित्तिक कर्मों का वर्जन (६४-६५)। इनसे प्रेतकृत्य का नाश होता है अतः वर्जित हैं (६५. ६७)। अत्यन्याय, अतिद्रोह और अतिक्रूरता कलि में भी वर्जित है। अति अक्रम और अतिशास्त्र भी वर्जित है (६८-१०३)। जीवत्मिक पिण्ड पितृ यज्ञ श्राद्ध का वर्णन (१०४-१०७)। पिता यदि सन्यास ले ले तो पातित्यादि दूषित होने पर उनके पितादि के श्राद्ध का विधान ( १०८-११७ )। इसी प्रकार चाचा आदि की स्त्रियों का (११८-१२०)। गौणमाता के श्राद्ध का विधान (१२१-१२५)। श्राद्धाधिकार और श्राद्धकर्ता गौणपिता के लिये भाई का पुत्र सपत्नीक कृतक्रिय भी पुत्र सज्ञा पाता है (१२६-१२६)। गोत्र नाम का अनुबन्ध व्यत्यास होने पर फिर कर्म करें (१३०-१३२)। अनाथप्रेतसंस्कारेऽश्वमेधफलवर्णनम् २६६३ कर्ता के दूर होने पर प्रेष्यत्व करे ( १३३-१३४ )।