Book Title: Silopadesamala Balavbodh
Author(s): Merusundar Gani, H C Bhayani, R M Shah, Gitaben
Publisher: L D Indology Ahmedabad
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शीलोपदेशमाला -- बालावबोध
६१
संघातिई लेई श्री - वयर - समीपि आविउ । तेतलइं श्री वयरि स्त्रीना चित्तनउ क्षोभ निवर्त्ताविवा-भणी सामान्य रूप कीधउ । तिवारई सर्व लोक कहिवा लागा, 'एवडा अतिशय, एवडी विद्या, पणि विधात्राएं रूप न कीधउं ।' तेतलइ भगतना चित्तनई हर्ष ऊजाविवा-भणी वली स्वाभाविक रूप कीधउं । पछइ धर्मोपदेश श्री-वयरस्वामिई दीघउ । इसिइ धन मन-माहि चींतवइ, ' माहरी पुत्री धन्य, जीणइ एहवइ ए स्थान कि अनुराग कीधउ छइ ।' इम कन्यानइ दानिइ, वरनइ ध्यानिह गुरुनी देशना धन न सांभलइ । तिसिह देसनानइ अंति धन गुरुनइ वीनवर, 'स्वामिन ! ए रुक्मिणी पुत्री तुम्हारा गुण स्मरती एतला दिन रही, पणि हिवइ पाणिग्रहण करी मनोरथ सफल करउ । नही तु अग्नि-सरण करिसिइ । एहनइ घणाइ वर आल्या, पणि ताहरइ सोभाग्यह करी रुक्मिणोइ सर्व वरनउ निषेध कीधउ । तेह-भणी हाथ 'मेल्हावण'इ सउ कोडि धन हूं आपिसु । पणि हिवइ पाणिग्रहण करि ।' तिवारइ वयरस्वामि कहइ, 'अहो धन ! कल्पवृक्ष मूंकि एरंडउ कउण आश्रइ ? चिंतामणि परिहरी काच कउण लिइ ? तिम चारित्र परिहरी धन अन कन्या उण आदरइ ? ए भोग विष-समान, जेह-लगइ चिहुं गतिना दुक्ख पामीइ । ए तु धन अनइ स्त्री नरगनउ कारण । अनइ जे चारित्र, ते मोक्षनउ कारण । जउ एहनउ अनुराग साचउ छइ, तु चारित्र लिउ, जेह-लगइ अनंत सुख पामीइ ।' इत्यादि श्री - वरना वचन सांभल रुक्मिणी चारित्र लीधडं साचउ सनेह पालिवा-भणी | तिम घणे श्राव के दीक्षा लीधी । इसिइ श्री - वयरस्वामिनइ जृंभक - देवताए आकाशगामिनी विद्या दीधी । ते विद्यान बलि वयर अगंजनीय हुउ ।
इम श्री वरस्वामि विहार करतां, प्रतिबोध देतां, सुखिई रहई छई । इसिई बार - वरिसी दुक पडिउ | माता बेटानउ वेसास न करइ, पिता पुत्रनइ न वीससइ । एहवइ दुकालि श्री - संघिइं गुरु वीनव्या, 'स्वामिन ! हाथीइ चड्यां जउ स्वान भसई, तु किम सोभइ ? तिम तुम्ह सरीखा गुरु, अन श्री संघ दुकालि दुखो थाइ ए वात शोभती नथी । पछइ श्री-वयरस्वामि चक्रवर्तिनी परिइं पट विस्तारी, संघ सर्व बइसारी, विचि आपणपे बइठा । विद्या स्मरी हूंकारउ जेतलइ मूकिउ, तेतलाइ पद आकाश चालिउ । तिसिइ दत्त नामा ब्राह्मण शय्यातर कण मांगिवा-भणी गयउ हूंतउ । एहवइ श्री वयर आकासि जाता देखी ऊंचइ सादि कहिवा लागउ, ' एता दिन शय्यातर डूंतउ, हिव साहम्मी थाउं छउं । मुझन कांइ मूंकउ छउ ? ए वचन सांभली श्री-वयरिहं दयालगइ ते-हू पटि बइसारिउ । पछइ पवनवेगि पट चालिउ |
ते पट श्री संघनइ विस्मय ऊपजावतां - माहेश्वरि पुरि श्री वयरस्वामि आव्या । तिहां बौद्धभक्त राजा राज्य करइ । तेहनइ मिली श्री-संघ सुभिक्ष-भणी तीणइ देसि रहिउ । तिहां जैन अनइ बौद्ध एका रहितां स्पर्धा ऊपाजेवा लागी । जैननी पूजा - महिमा देखी बौद्ध राजा वीनविउ, 'राजन् ! ए जे जैन आव्या, ते तु सर्व फूल लेई जाई । आपण देहर कांई फूल लावइ नहीं। तेह-भणी माली वारीई ।' पछइ राजाई सर्व माली तेडीनइ कहिउं जु, 'श्रावकन फूल मापिो । पछ३ मुहगा ई फूल सोनानह मूलि नापइ । तिवारइ श्रावक पंचवर्ण रत्न, कपूर, कस्तूरीए करी पूजा करहूं । पणि जहवी फूलनी पूजा करतां लागइ, तेहवी इच्छा अपुचत, अनेक उपाय श्रावक चींतवई । पणि उपाय लहई नहीं । इम उपाय चींतवतां पजुसण १. P. मेलावणीइ २ Pu. P. पजुसरण ।
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