Book Title: Silopadesamala Balavbodh
Author(s): Merusundar Gani, H C Bhayani, R M Shah, Gitaben
Publisher: L D Indology Ahmedabad
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मेरुसुंदरगणि-विरचित प्रियानइ मनि माहरउ वियोग केतलउएक छइ ? किसिउं करइ छइ ?' इम प्रच्छन्न-वृत्तिई जु जोइ तु सिउं देखा? ते नंदयंती भरिनइ वियोगि जिम जल-विण माछली टलपलइ, तिम टलवलइ छइ । खिणि बइमइ, खिणि सूइ, खिणि ऊठइ, खिणि भुई पडइ । इम करतां किमही जंप न हुइ । वली हार-दोर त्रोडइ, समस्त अंग मोडइ, चंद्र चंदन अपारि दहइ, मुखि इम कहइ, 'दैविई मुझनइ एवडउ वियोग सिउं कीधउ ?' इम कही तिहां-यकी ऊठी घरनी वाडीइ गई । तिहां जई पंच-परमेष्टि-नवकार कही, देवगुरु स्मरी, सर्व जीव साथि खिमित-खामणां करी कहइ, 'हिवडां भरतार अणबोलाविउ चालिउ छइ । जु इणि भवि एहव स्वरूप हुउं, तु आवतइ भवि मुझनइ समुद्रदत्त भर्तार होज्यो ।' इम कही आपणा वस्त्रनउ पासउ करी वृक्षिई बांधिउ । तिहां भरतारना गुण वली वली स्मरी आपणइ गलइ जेतलइ 'पासउ घातिठ, तेतलइ समुद्रदत्ति आवी पासउ कापिउ । पछइ तिहां संभोगादिक सुख अनुभवी, गत्र रहो, प्रियानइ मोकलावी, पाछउ प्रवहणि आवी, प्रवहण खेडावी द्वीपांतरि चालिउ ।
हिव जे समुद्रदत्त रात्रिई घरि आविर, ते वात कोई न जाणइ । पणि तीणइ संयोगि नंदयंतीनइ गर्भ रहिउ । तेतलई माम च्यारि हुआ, पछइ उदर वाधिवा लागउं । तिसिइ सागरपोत-सुसराना मन-माहि एहवउ विश्लेष ऊपनउ, 'जहीइ समुद्रदत्त चालिउ तहीइ ए वधू तु रतिवंती हंती । तिणि करी विणमोकलाविई चालिउ । अनइ हिवडां जे ए गर्भ दीसइ छइ, तिणि करी इम जाणीइ, ए दुःशीला । तु ए वधू अम्हारा कुलनइ लांछन ऊपजाविसिइ । हिवइ ए राखिवा "युक्ती नहीं। चांडालिनी परिइं परिहरी जोईइ।' इम मन-माहि चीतवी, निर्दयपणउ आणी, मउडइ-सिउ नंदयंतीनइ रथि बईसारी, महा-वन-माहि लेई मूकी आविउ ।
तिवार-पछइ नंदयंती चीतवइ, 'मई तु अपराध काई नहीं कीघउ, अनइ है जे ईणइ स्वसुरह बीते कांड १इम विमाम्तो अचेत थई भुंइं पडी । लगारेक वाय वायउ, सचेत हुई। निराधार ती चीतवइ, 'हि वह माहरउ शील किम रहिसिइ ? इम चीतवी जेतलइ वन-माहि पासउ गलइ घातिउ, तेतलइ देवताइ पासउ कापि । तिहां हनी आधी चाली । सिंह व्याघ्र आवी नमी नमी जाई, पणि पाडूउ कांई न करई । पछइ पर्वत एक नई शंगि चडी, देवगुरुनउ ध्यान करी जेतलइ झांप दीधी, तेतलई देवताइ तलइ पल्यंक कीधउ । तिहां शासनदेवता, तनिध्य की । वली आगलि जाती चींतवइ, ह भरतारि छांडो, पिताई छांडी. न जाणी मझनइ अजी विधात्रा सिउ करिसिइ ? इम आपणपउ निंदती यूथभ्रष्ट हरिणीनी परिडं उपद्ध-परड फिरिवा लागी । ईसिई भरूच -नगरनउ अधिपति श्रीपद्मराजा मृगयात्रा-भणी नीलिउ हंतउ, तिणि ते बन-माहि नंदयंती दीठी । बहिन करी मानी । पछइ आपणइ नगरि
आणी । कहिउँ, 'बहिनि ! जां-लगइ ताहरउ पति नावइ तां-तांई शत्रूकारि दीन-दुखित-लोकनइ दान दइ ।' पछइ नंदयंती दान देतो, धर्म-ध्यान करती, गर्भ पालती, भरिनइ स्मरती, रहइ छइ । हिव श्रेष्टि कहूनइ वन-माहि मूकी पाछउ घरि आवी, तिहां वहूना शीलनी वात सर्वकुटुंब-आगलि कहो । ..
हिवइ अन्यदा सूरपाल प्रतीहार किसिई काजिई जिहां समुद्रदत्त छह तिहां गयउ हूंतउ । ते
काज करी पाछ उ घर-भणी चालिवा लागउ । तिसिई तेहनइ हाथि समुद्रदत्तई आपणइ माता-पिता-प्रियानइ कई कांई अपूर्व वस्तु मोकली । ते लेई सूरपाल घरि आवी
१K.पाश । २.K.P युक्त । ३K. छांडिवा योग्य । ४K.नथी ।
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