Book Title: Silopadesamala Balavbodh
Author(s): Merusundar Gani, H C Bhayani, R M Shah, Gitaben
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 206
________________ शीलोपदेशमाला-बालापबोध वली श्री-उपदेसमाला-माहि कहिउं छइ, ते कहइ-- जइ ठाणी जर मोणी जइ मुंडी वक्कली तवस्सी वा । पत्यंतो अ अबंभं बंभा वि न रोचए मझं ॥ ९७ व्याख्या:-जइ किमइ एकणि ठामि काउसम्गि सिंहगुफावासीनी परिई रहइ, अथवा जंगमादिकनी परिइ मूनव्रत-धारक हुइ, अथवा मुंडितमस्तकलुंचितकेश बौद्धादिकनी परिइ, वक्कली वल्कल कहीइ त्वचा-धारक तापसादिक, तपस्वी=मास-क्षपणादि उग्र-तपकारक विश्वामि-त्रादिक, वा-शब्द-इतु अनेरउ इ कोई जाति-कुल-ईश्वर्यादि जे संपन्न, गुणवंत हुई, तेहवउ इ हूंतउ जइ किमइ अब्रह्म सेविवा वांछइ, तर ते नर-मनुष्य मुंहनइ न रुचइन सुहाइ । अनेरानउं सिउं कहीइ १ जे लोक-माहि ब्रह्मा जगतनउ कर्ता छइ, ते पणि न रुचइन भावह । इय भावं भावंतो सजोग-जुत्तो जिइंदिओ धीरो । रक्खइ मुणी गिहीवि हु मिम्मल निय-सील-माणिक्कं ॥९८ व्याख्या:-- इम पूर्वोक्त भाव भावतउचीतवतु हूंतउ आपणउ मन-वचन-कायनउ योग, तिणि करी संयुक्त सहित हूंतउ, जितेंद्रिय कहीइ आपणी इंद्रिय जीपी=उन्मार्ग-हूंती निवर्तावी, जे धीर= निश्चल, मुनि-महात्मा अथवा गृहस्थ, ते आपण निर्मल-शीलरूप माणिक्य-रत्न राखइ। माणिकनी परिई शील सुरक्षित करिवउं । हिव मुनिनी परिई शीलरक्षानउ उपाय कहइ एगते मंताई पासत्थाई-कुसंगमवि सययं । परिवज्जंतो नवबंभ-गुत्ति-गुत्तो चरे साहू ॥९९ व्याख्याः - एकांति-निर्विजन-स्थानकि, स्त्री-साथि मंत्र आलोचकरण, आदि-शब्द-लगी जे स्त्री व्याकुल स्थानक, तेहनउं वर्जिवु, वली पासस्था-उसन्नादिक, तेहनउ संग वर्जिवउ । इत्यादि बोल वर्जतउ, नवविध ब्रह्मचर्य गुप्ति तिणि करी गुप्त-सहित साधु विचरइ । वली आदि-शब्द इतु अवसन्न-कुशील-संसक्त यथाछंदादि जाणिवा । हिव गृहस्थनइ पणि शीलरक्षानउ उपाय कहइ वेसा-दासी-असई-पमुहाणं सेस-दुट्ठनारीणं । सील-वय-रक्खणत्थं गिही वि संग विवज्जिज्जा ॥१०० व्याख्या:-गृहस्थि आपण शलवत राखिवा-भणी वेश्या, दासी, असती कही जे भरिनड वंची पर-पुरुष-सिउं रमइ, एह-प्रमुख अनेरी इ जे दुष्ट-कुशीलिणी नारी हुइ, तेहनउ संसर्ग सर्वथा वर्जिवउ । एहना संसर्ग-लगइ गृहस्थनइ शीलभंग-दोष ऊपजइ । अथ वली मुनि-गृहथनह शिक्षा कहइ वेसा-दासी-इत्तर-परंगणा-लिंगिणीण सेवाओ । वज्जिज्ज उत्तरोत्तर ए ए दोसा विसेसेण ॥१०१ व्याख्या:-गृहस्थई ए सर्व वर्जिवी, जिणि कारणि एक एक पाहंत अधिक अधिक सदोष छइ । ते कउण ? वेश्या पणांगना, ते भलइ मनुष्यइ वर्जिवी । दासी चेडी ते पणि न सेविवी । इत्वरा कहीइ जे भाडउं देई संभोग-भणी घरि राखी हुइ । परांगना कही परस्त्री, ते तु सर्वथा त्याज्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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