Book Title: Silopadesamala Balavbodh
Author(s): Merusundar Gani, H C Bhayani, R M Shah, Gitaben
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 210
________________ १६९ शीलोपदेशमाला-बालावबोध अन्यदा दशरथराजा आपणपानइ वृद्धपण जाणतउ शीरामनइ राज देवा लागउ । इसिइ के केइई अवसर जाणी पूर्विलउ वर 'पोतिइ हूंतउ, ते मांगिउ । तिवारई दशरथ राजा चिंतातुर हूंतउ रामन तेडीनइ कहइ,'वत्स! मइ केकेइनह सयंवरा-मडपि सारथीपणइ वर कहिउ हूंतउ । ते वर हिवड केकेइ मागइ छइ । इसिउं कहइ जु. "माहा पुत्रनइ राज दिउ ।” तु हूं हिवइ सि करउ ?' तिवारई राम हर्षित हूंतउ कहइ, 'तात ! ताहरइ तु बेहू पुत्र सरीखा । तेह-भणी भरतनइ राज दिउ।' ए वचन सांभली पछइ राजाई भरत तेडीनई कहिउं, 'ए राज तूं लइ ।' तिवारइं भरत कहइ, 'राम-थकां मुझनई राज किसिउ ?' तिवारइं वलतू राम कह्इ, 'हे बंधव ! तूं बापनू ऋण वालि । हूं वनवास आदरिसु ।' इम कही पिता नइ प्रणाम करी, धनुष, तूणीर-भाथउ हाथि लेई, मानइ प्रणाम करिवा गयउ । तिसिई माइ पणि ए वात सांभली, असमाधि करती कहइ, 'वत्स! ताहरउ वियोग किम सहिसु ?' तिवारइं राम कहइ, 'मात ! जिवारई सिंह वन-माहि जाइ छइ, तिवारई सिंहो कोई असमाधि न करइ । तिम मुझनइ वन-माहि जातां तूं कांई असमाधि करइ १'इम मातानइ समझावी प्रणाम करी, सिंहनी परिई श्रीराम वनवास भणी नीकलिउ । तिसिह सीता पणि सास-स्वसुरानई प्रणमो भर्तार-केडिई नीकली । तेतलइ वली लक्ष्मणि इए वात सांभली जु, 'श्रीराम वनवासि चालिउ' । तिवारई लक्ष्मण रीसाणउ हंतउ असमाधि करता इसिउ कहिवा लागउ जु, 'ए केकेइ कालरात्रि-सरीखी हुई। कई ? जेह-हूंतउ सांप्रत एवडउ उत्पात ऊपनउ ।' इम कहितां जि दशरथ राजा केकेइना पुत्रनइ राज देई आप "ऊरण हुउ । तिवारइं लक्ष्मण कहइ, 'तात! कहउ तु एहनइ हणी राज रामनइ दिउ । अथवा भरत आफे गमनइं देसिइं। वली लक्ष्मण चीतवइ, 'इम करतां कुलि विरोध ऊपजिसिई।' इम चीतवी पितानई पूछी लक्ष्मण राम-केडिइ नीकलीउ । इम जिवारई लक्ष्मण, श्रीराम नइ शीता-त्रिणइ अयोध्या-हूंती नीकल्या, तिवारइ समस्त नागरीक-लोक आंखिइ अश्रधात करतां इसिउं कहइं, 'वली ईणि नगरि एह जि श्रीराम राजा होसिइ ।' एहवी लोकनी आसीस लेता, पादचारी, मउडइ मउडइ पंथ अवगाहता, महा-दंडकारण्य-वन-माहि एक गुफा छइ. तिहां आवी रह्या । तिहां जेतलइ बि मास-खमण कधा, तेतलइ पारणइ मुनि एक विहरवा आविउ । तिवारइ शीताइ ग्रासुक-अन्नपाने करी महातना प्रतिलान्या । तिसिइं देवताए देवदु दुभि-नाद करी कुसुमनी वृष्टि कीधी । एहवइ कोई एक कुष्ट-रोगी खग-पांखीई आवी मुनिना चरण नमस्कर्या । तेतलइ तत्काल मुनिचरणना स्पर्श-लगी सुवर्ण-पक्षी हू । तिवाग्इ श्रीराम मुनिनइ वंदीनइ पूछिवा लागउ, 'ए रोगी, दुष्ट पंख उ, तुम्हारा स्पर्श-लगइ सुवर्ण वर्ण हुउ, ते मिउ कारण ?' तिवारइ मुनि कहइ, 'हे राम ! एहनउ पूर्व संबंध सांभाल । इहां जि कुभारनउ की "पुरनगर, तिहां दंडकराजा राज्य करइ । तेहनउ महतउ पालक इसिइ नामि। अन्यदा तणइ महतइ श्रीखंदकाचार्य गाढा पीडया । तीणी वेदनाइ खंदकसूरि मरी वह्मिकुमार-माहि देवता हूउ । तिवारह ते रीस-लगइ ए नगर, देस, राजा, लोक सहित सहु भस्म कीधउ । तिणि कारणि ए दंडकारण्य हुउ । हिवइ जे दंडक राजानउ जीव, ते संसार-माहि भमी भी सांप्रत ए कुछ पाखीउ हूउ । ते हिवडां अम्हनइ देखी एहनइ जाती-स्मरण-ज्ञान ऊपनउं । सांप्रत आपणउं पर्विल स्वरूप दीठडं । अनइ वली जिन-धर्मनइ प्रमाणि नीरोग हउ । तु हिवइ ए १. C. L. . पोतई, Pu. पोति-हुतु। २. K. ऊऋण, Pu. ऊर्ण । १. P. पुरिमताल नगर । २२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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