Book Title: Silopadesamala Balavbodh
Author(s): Merusundar Gani, H C Bhayani, R M Shah, Gitaben
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 183
________________ १४२ मेरुसुंदरगणि-विरचित वारइ पणि कदाग्रह न मूकइ । पछइ वनवासनी तुलना करिवा-भणी एकली नगर-समीपि जे वन छइ, ते वन-माहि जई उग्र तप करिवा लागी । हिवइ एकदा वसंतऋतई देवदत्ता गणिका पांचे पुरुषे परिवरी तेह जि वन-माहि आवी क्रीडा करिवा लागी। एक पुरुष पग तलहांमइ, बीजउ वोजणइ वाय घातइ छइ, त्रीजउ पानना बीडी करी मुखि दिइ छइ, च उथानइ उत्संगि सुति छइ, पांचमउ पाणी पाइ छइ-इम पांचे विट पुरुषे देवदत्ता गणिका सेव्यमान । पांचइ लालि पालि करतां देखी सुकुमालिका चर्चीतवइ, 'एक हूं स्त्री जोउ, जे मई बि वर परा अनइ ते बेइ वर रात्रि मूनइ मेल्ही नाठा । अनइ एकि बापडी स्त्री जोउ, जेहनइ पांच पुरुष लालिपालि करई छई, तु ही ए बोल नहीं देती । तु हिव जु माहरा तपर्नु प्रमाण छई, तुहूं भवांतरि पांचे भरतारे सेव्यमान हूजिउ ।' इम कामभोगाभिलाषिणीइ निआणउं बांधिउं । तिहां आपण उ तप वेचिउ । जु ए तप न वेचत, तउ तीणउ जि भवि तपनइ प्रमाणि मोक्ष जाअत । हिक ए निआणउं अणआलोइ 'अद्धमासनी संलेखना करी तर तपती हुइ उपाश्रयि रही । तिहां-थको मरी नव पल्योपमनइ आऊखइ सौधर्मइ देवलोकइ देवी हई । तिहां-हती चिवी कांपिल्य-पुरनउ अधिपति द्रुपदराजा, तेहनइ घरि द्रुपदो एहवइ नामि महा-रूपवति कन्या हुई । क्रमिइ यौवनपणउं पामिउं । तिवारइ द्रुपदराजाइ पुत्रिकाना पाणिग्रहण-भणी स्वयंवरा-मंडप मंडाविउ । तिहां गधावेधविद्या मांडी । सर्व राजा दूत मोकली मोकली तेडाव्या । तिहां पांङ राजाना पुत्र युधिष्ठिर १, भीम २, अर्जुन ३, नकुल ४, सहदेव ५-ए पांचइ पांडव महारिद्धिनइ विस्तारि आव्या । तिसिई द्रुपदी सालंकार, साभरण, स्नान करी, स्वेत वस्त्र पहिरी, स्वयंवरा मंडप-माहि आवी। तिहां हाथि वरमाला लेई ऊभी रही । एतलइ अर्जुनि राधावेध साधिउ । तिसिई द्रपदीइ अर्जुननइ कंठि वरमाला मूकी । तेतलइ पृविला निआणाना कर्मना उदय-लगइ पांच पांडवनड गलइ समकालइ वरमाला पडी । तिवारइ राजा द्रुपद अनइ द्रुपदीना मन-माहि एहवी चिंता ऊपनी जु, 'एक वरमाला पांचनइ कंठि किम पडी ? अथवा पांच-इ-नइ पुत्री किम देवराह . एतलड आकाशि देवतानी वाणो हुई। कहिउँ, 'ए नियाणा-बद्ध छइ, एहनइ पांच भरतार होसिह । ए वात चूकइ नही । पांच-इ-नइ पाणिग्रहण करावउ ।' इम देवतानी वाणी सांभली भवितव्यतानु निओग जाणी पांच-इ-नउ पाणिग्रहण कराविउ । पछह पांचड भर्तार-साथिद्ध द्रपदी सुख भोगविवा लागी । एहनउ विस्तार पांडवना चरित्र हतउ जाणिवउ । इहां संखेपिई करी कहिउं छह । जिम द्रुपदीइ पाछिलइ भवि विषयाभिलाषि नियाणउ बांधिउ, तिम अहो लोको! विषयनउ एहवउ व्याप जाणी तुम्हे निआणउं न बांधिवउं । इति श्री शीलोपदेशमाला बालाविबोधे द्रुपदीचरित्र समाप्त ॥३७॥ हिवइ जे पुरुष पारदारिक कहीइ परस्त्री नइ विषइ व्यसनीआ हुई ते गरुया इ लघुत्वपणउं पामइ । ते दृष्टांत-सहित देखाडतउ कहइ अमर-नर-असुर-विसरिस-पोरिसचरिओ पि पर रमणि-रसिओ । विसम-दसं संपत्तो लंकाहिवई वि रंको व्व ॥६४ १. C.K.Pu. आठ मासनी । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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