Book Title: Silopadesamala Balavbodh
Author(s): Merusundar Gani, H C Bhayani, R M Shah, Gitaben
Publisher: L D Indology Ahmedabad
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१४८
मेरुसुंदरगणि-विरचित
रूप करी मुखि मांस-खंड लेई नदीनइ कांठइ आविउ । जिम नदी -माहि माछिली दीठी, तिम नि मांस मूंकी माछिली -भणी घायउं । तेतलइ माछिलउ कूदी नदी -माही पइठउ । अनइ जे मांसखंड हूंतउ, ते समल| लेई गई । इम सीआलिउ बिहुं-हूंतु चूकउ देखी राजवल्लभा कहइ, 'रे दुर्बुद्धि ! रे मूर्ख ! मुखि आविड मांसपिंड मूकीनइ जड माछला - पूठिइ घाउ, तु जोइ न बिहुडूंत चूकउ ।' तेतलइ मनुष्य-भाषाई सीयालीइ लोक बोलिउ । यतः - 'इतो भ्रष्टा ततो भ्रष्टा नदी वहति संगमे ।
न च जारो न भर्तारो कथं वदसि नग्निके' ॥१॥
वली कहइ, 'रे नीलजि ! हूं तु बिहुँ थकउ चूकउ, पणि तू राजा-पउतार-चोर त्रिहुँथकी चूकी | रे नग्नि ! मुझनइ सिउ हसइ ?' ए वात सांभली जेतलइ भयत्रस्त हुइ, तेतलइ देवता प्रगट हुई कहइ, 'अरे पाविणी ! ते हूं पउतार, जे तई हूं मराविउ । पणि मइ जिनधर्मइ प्रमाणि देवपण पामि । तु हिवइ हूं तुझ ऊपरि सी दया करउ ? पणि तथापि जिनधर्म पडिवजि ।” तिवारइ तिणि राजवल्लभाई वचन मानिउँ । पछइ देवताई ते राणी ऊपाडी महासती - समीपि लेई मूकी । तिहां दीक्षा लीधी । तु ही अजी असतीनउ अपयश रूपीउ नाद विरमिउ नथी ।
इति श्री शीलोपदेशमाला - बालाविबोधे नूपुरपंडितानी कथा समाप्त ॥ ३८ ॥
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अथ दत्तदुहितानी कथा कहीह
[ ३९. दत्तदुहितानी कथा ]
जयपुर नगर । तिहां जयरथ राजा राज करइ । तेहनइ दत्त एहवइ नामि मंत्रीश्वर । तेहमी पुत्री शृंगारमंजरी एहवी नामि । ते आपणइ रूपि यौवनि करी सर्व विश्वन व्यामोह ऊपजावई । पणि ते पूर्वकर्मना दोष लगइ आकार इंगित चेष्टाई करी असतीपणउ जणावइ । हिवह राजा वावि-कूप-तडाग वननइ विषइ क्रीडा कुतूहल रसिक हूंतउ एकदा जयरथ भूपतिइ जिम ते गडखि बइठी शृंगारमंजरी दीठी, तिम ज राजा काम-विह्वल' हूउ । चेतना इ नाठी । कांई, कंदर्प - रूपी भीलिइ राजा हणिउ । तेहना दर्शन लगइ आराम-वाविनी क्रेडा वीसरी गई । पछ ए वात प्रधाने जाणी, ते श्रृंगारमंजरी मांगी। भई दिवसि राजाइ तेहनउं पाणिग्रहण कीघउँ । पछ राजाईं सप्तभूमिका आवास माहि राखी । पणि ते श्रृंगारमंजरी स्वभावि इ चपला । हिवइ राजा सहित किवारइ वन-माहि, किवारइ प्रासादि, किवारइ सान भूमिकानि आवासि इम भर्तारना वालपणा-लगइ स्वेच्छाइ सुख विलसइ । अनइ राजा पणि स्नान-भोजनादिक सर्व तेह-जि-नह घरि करइ । तेह-तु एक क्षण अलगउ न रहइ ।
इसि तेह जि नगर-माहिं व्यवहारीआनु पुत्र धनंजय । ते एकदा मार्गि जातउ हूं तउ | जीणइं गउखि बइठी छइ जे अंगारमंजरी, ते गडखलि हारि मनोहारि कंदर्भावतार ते धनंजय नीकलिउ । तिसिहं ते दत्तनी पुत्री श्रृंगारमं जरोइ दीठउ । पछइ कामनी वाही हूंती तत्काल चीरीइ मनोगत वात लिखी मुक्ताफलनइ हारि बांधी उपरि-थकीइं धनंजयना कंठ-भणी ते हार लांखी गलइ घातिउ । तिसिहं धनंजइ ते हार हूंती- चीरी लेई वांची । तिवारई ते राणी सानुरामिणी जाणी आपणइ घरि आविउ । पछइ घगडं घन वेची आपणा घर-हूंतो राणीना घर-सीम मोटी सुरंग देवरावी । १. C. काम विद्धउ, K. काम-विकल ।'
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