Book Title: Silopadesamala Balavbodh
Author(s): Merusundar Gani, H C Bhayani, R M Shah, Gitaben
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 196
________________ शीलोपदेशमाला-बालावबोध १५५ हिवइ जे भव्य हुई ते स्त्रीनां चरित्र देखी विषय-इता विरता हुई । इसिउ दृष्टांतपूर्वक कुडिलं महिल-ललिय परिकलिउ विमल बुद्धिा धीरा । धन्ना विरत्त चित्ता हवंति जह अगडदत्ताई ॥८६॥ व्याख्याः -महिल=त्रीनउ महाकुटिल वांकुं ललितपणउं बुद्धिवंत-पुरुषनई अनाकलीय, तु एवढं ते चेष्टित=आचरण परिकली=जाणीनइ जे निर्मल-चेष्टित हुइ, बुद्धिमंत हुई, धीर हुई, हलूकर्मा जीव हुई ते ए स्त्री-हूंता विरक्त-चित्त हुई, अगडदत्तनइ दृष्टांति । जिम अगडदत्तकुमार स्त्रीना चेष्टित देखी विरक्त हुउ, तिम आदि शब्द-इतु भर्तृहरि-शालिभद्र-जंबूस्वामि-प्रमुख अनेक पुरुष जाणिवा । एतलह गाथानउ अर्थ हू। विस्तरार्थ कथा-हूंतउ जाणिवउ । ते अगडदत्तनी कथा कहीइ [४०. अगडदत्तनी कथा] शंखपुर नगरि सुंदर राजा, भार्या सुलसा । तेहनी कूखि-हूंतउ ऊपनउ अगडदत्त । पणि ते महा रूपवंत, महा पराक्रमी अनइ वली सर्व दोषनउं निधान । ते एकदा राजसभा-माहि आवी बइठउ । तिसिइ लोके आवो राजा विनविउ, 'स्वामी! ईणइ अगडदत्ति सह नगर संतापिउ । एह-थकां अम्हे वसी न सकूँ ।' ए वात सांभली राजा रीसाणउ हूंतु कहिवा लागउ, 'वरि अणजायउ पुत्र भलउ, पणि दुर्विनीत पुत्र पाडूउ । जिणि कारणि, सामान्य इ कुल भलइ. पुत्रिई विभूषीइ, अनइ भलूइ कुल कुपुत्रिइ कलंकीइ ।' इत्यादि वचन कही साहंकार कुमार राजाइ निर्भसिंउ । तिवारई कुमार 'प्रहुसिउ हूंतउ रात्रिई नीकली गयउ । मउडइ मउडइ भूमि आक्रमतउ वाणारसी-नगरीइ आविउ । हिवइ ते नगरी जोतउ जोतउ कुणहि एकणि मढि गयउ । तिहां नेसाली मणई छई उपाध्याय-समीपि आवी । तिसिइ पवनचंद्र उपाध्यायन प्रणाम करी ते अगडदत्त-कुमार आगलि बइठउ । तिवारइ ते आकृतिवंत कुमार देखी उपाध्याय पूछइ. 'तूं कउण १ किहां-हंत उ आविउ ? अनइ कउण कारण ?' तिवारइ कुमारि आपण उ सर्व वृत्तांत कहिउ । पछइ उपाध्याय कहइ, 'वत्स ! जे सुपुत्र हुइ, मातापितानइ न मूकई । कांइ ? तेहना उपगारनई आपणपे 'ऊरण किम इन थईइ । जीणइ स्तन्यपान कराव्यां तेहनइ जु मुंकीइ तु ढोर न माणसनइ सिउवहिरउ ?' तिवारइ कुमार कहइ, 'ए बोल तुम्हारउ मइ मानिउ । पछह उपाध्यायइ आपणइ घरि आणी स्नान-भोजन करावी कहिउं, 'वत्स ! पिताना घरनी रीतिई डहां त रहे । चिंता किसी इ म करे ।' पछइ कुमार तिहां रहिउ हंतु सर्व शास्त्र भणिउ । हिव एकदा कुमार वन-माहि खेलतउ हूंतउ, तेतलइ अकस्मात् फूलनइ दडइ आहणिउ । तिसिइ. जउ पाछउं जोइ, तु रमणी एक दीठी । कुमार पणि तेहने कटाक्षबाणे करी वीघिउ इंतउ स्त्री-सम्मुख जोवा लागउ । तिवारइ स्त्री कहइ, 'अहो कुमार ! जे वेला-लगइ तूं दृष्टिई दीठउ. ते वेला आरंभी तू कंदर्पने बाणे करी हणइ छइ ।' ए वात सांभली कुमार पूछइ, 'सुभगि. ! तू. कउणि १ कहिनी बेटी ?' तिवारइ स्त्री कहई, 'हूं बंधुदत्त श्रेष्टिनी पुत्री, नामिई मदनमंजरी । मइ बालकपणइ सर्व कला अभ्यसी । पछई हूं पिताई परणावी । पणि भरतारइ दालिद्र-लगइ हूं परिहरी। १. P. रीसाणउ । २. A.B.L.Pu. ऊर्ण, K. उसिंकल । ३.K. अंतर । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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