Book Title: Silopadesamala Balavbodh
Author(s): Merusundar Gani, H C Bhayani, R M Shah, Gitaben
Publisher: L D Indology Ahmedabad
View full book text
________________
मेरु सुन्दरगणि-विरचित
हत्थपाय पडिछिन्नं कन्ननास - विगप्पियं ।
अवि वास सयं नारिं बंभयारी त्रिवज्जए ॥ ७२
व्याख्या : - जे स्त्रीना हाथाग छेद्या हुई, काननाक ते पणि काव्यां हुईं वली सउ वरस उल्या हुइ, एहवी है बीभत्स स्त्रीनउ सतर्ग ब्रह्मवारी निश्चइ-सिउं वर्जइ । कांइ १ इंद्रियग्राम दुर्जय छइ ।
१५२
27
वली एह जि विशेष बिहुं गाहे करी कहइ
व्याख्या : - इहां पहिलउं जीवनइ अनादि भवाभ्यास लगी विषय- पिपासा = भोग-तृष्णा निवारतां दोहिली, अनइ इंद्रिय तु महादुर्जय = जीपाइ नही । तेह इ माहि वली चित्त-मन ते तउ गाढेरउं चपल [७३], [थेत्र ] जे सत्त= चित्तनउ दृढपणउं छइ, ते तु थोडिलउं लगारेक, वली असार=क्षण- विनश्वर । अनइ जे महिला =स्त्री ते तु मोहणनी वेलडी । कांइ, रात्रिदिवस हाव-भाव कटाक्ष - विक्षेद के करी व्यामोह ऊजावइ । एतले प्रकारे करी जेती वारह चित्तचल इ, तिवारई स्त्रीनइ संसर्गि आपणउं ब्रह्मव्रत किम राखी सकइ ? अपि तु न सकइ । इम शीलभैगन अणकरिवइ करी आपणउं मन राखइ ।
हिवइ ए अर्थनइ विहरह आपणा आत्मानइ शिख्या दिइ ते कहइ
विसमा विसय पिवासा अणाइ भव-भावणाइ जीवाणं । अइ दुज्जेआणि य इंदियाणि तह चंचलं चित्तं ॥ ७३ थेवमसारं सत्तं मोहण वल्ली अ महिलिआओ वि । इअ कह विचलिय-चित्तो य ठावए एवमप्पाणं ॥ ७४
व्याख्या : - रे जीव ! सिद्धांत माहि कहिउँ छइ अनई प्रत्यक्ष अनुभव करो देखइ छइ पणि, कामभोगनां सुख जेतलइ आंखि मीची ऊबाडीइ, एतलउं विषय-सुख छइ । तु एहनइ काजि, अरे मूर्ख जीव, अनंत = शास्वतां मोक्ष सुख कांइ हारवइ ? ते केहवां छई ? जे शशी चंद्रमा, तेहनी कान्ति ते समान उज्ज्वल छ । अनह वली जस= कीर्ति, ते पणि मुहीआं कांइ गमाडइ १ कांइ नीगमइ १ हिवइ कामातुर मनुष्यनइ जे इह-लोकि दोष ऊपजइ, कहइ
इत्यादि ।
रे जीव समय कप्पिय-निमेस सुह- लालसो कहं मूढ ।
सासय- सुह्मसमं तं हारिसि ससि सोयरं च जसं ॥ ७५
कलमल - अरइ- अभुक्खा वाही दाहाइ विविह- असुहाई ।
मरणं पि हु विरहाइसु संपज्जइ काम - तविआणं ॥ ७६
व्याख्या : - कामदन जीवनइ जे ऊपरि वांछा हुइ, ते-पाखइ कलमलउ = चित्तनउं व्याकुल
उं, तिणि करीअरति= चित्तनउ उद्वेग, तेह लगइ अभूख हुइ । अति काम-लगी व्याधि=ज्वर, खनादि रोग ऊपजइ, हीया-माहि दाघ ऊपजइ । आदि शब्द-इतु मूर्छा = चित्तनइ सून्यता इत्यादि ऊपजइ । मरण पणि ऊपजइ विरहादिके करी । यतः -
Jain Education International
प्रथमे त्वभिलाषः स्यात् द्वितीये ह्यर्थचितनं । अनुस्मृतिस्तृतीये च चतुर्थे गुण-कीर्तनं ॥१॥ उद्वेगः पंचमे ज्ञेयो विलापः षष्ठ उच्यते । उन्मादः सप्तमे ज्ञेयो भवेद् व्याधिरथाष्टमे ॥२॥ नवमे जडता प्रोक्ता दशमे मरणं भवेत् ।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org
Page Navigation
1 ... 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234