Book Title: Silopadesamala Balavbodh
Author(s): Merusundar Gani, H C Bhayani, R M Shah, Gitaben
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 185
________________ १४४ मेरुसुन्दरगणि-विरंचित ते वात न जाणीइ । पणि एक वार वली तूं जा । कांई, जे गढ छइ ते ही उपक्रमिइंज लीजइ । पछइ मनुष्यन सिउं कहिवउ?' तिवारइ तापसी कहइ, 'ते तु सती । तेइनउं दर्शन तुझनइ दोहिनु घटइ । तु ही तुझनइ तां एहनी आशा छइ, तउ एक वार वली जाउं ।'इम कही ते तापसी[इ] दुर्गिला-समीपि. जईनइ इसिउं कहिउं, 'ते तउ नर ताहरइ विषइ अनुरक्त छह, तू निरास काइ मकई ?' तिवारइ दुर्गिलाई जाणिउं, 'सही तिणि दिहाडउ जाणिउ, पणि ठाम न जाणिसं, तेहभणी मोकली ।' पछइ दुर्गिलाइ ते तापसी-ऊररि रोस करी घरनो छोंडीइ काढो । तिसिइ विलखी थकी पाछी आवी । ते तरुण पुरुषनइ सर्व वृत्तान्त कहिउ । तिबारइं तिणि जाणि पछोकडि तेडिउ छउं ।' तापसी कहई, 'आज पछाइ हं वली नही जाउं ।' ... पछई ते तरुण पुरुष काली पांचमिनी गत्रिई तेहना घरनी वाडी-माहिगयउ तिसिंह तिहाविना माहोमाहि संबंध हुउ। तिहां जि विहुँनइ निद्रा भावी। तिसिई देवदत्त वृद्ध सोनार, तेहनउ सुसरउ,जे रात्रिई घरनइ पछोकडि जिहां वाडी छइ, तिहां कायनी चिंता-भणी जु आवइ,तु तेहवउ अपमंजस संबंध देखी चीतवइ, 'ए तु पुत्र नही ।' पछइ घर-माहि आवो पुत्रनइ जोई वली पाछउ आवी चीतवइ, 'जउ प्रभाति बेटानइ ए वात कहि, तु बेटउ मानिसिई नही ।' इम विमासी मउडइसिउ पगनउं नेउर ऊतारी लीधउं । तेतलई दुर्गिला जागी । सुसरउ · उलखिउ । पछह तिणि जार-पुरुष जगाडीनउ कहिउं, 'आपणपे सुसरई दोठां, पणि हिव तूं सखायत करे ।' पछइ ते तरुण वचन पडिवजी आपणइ घरि गयउ । अनइ दुर्गिला ऊठी भर्तार-समीपि आवी । तिहां भरिनइ जगाडीनइ इसिउं कहइ , 'इहां ताा हुइ छइ, पणि आपणपे पछोकडि अशोकवनिका-माडि जई निद्रा कीजइ ।' पछइ देवदिन्न दुर्गिला-सहित पछोकड जई सूतउ । मन-माहि कांई कपट नही, तिवारइ. जि तेहनइ निद्रा आवी । पणि दुर्गिलानइ निद्रा नावइ । घडी बिघडी गई. तेतलइ भरिनइ जगाडी कहइ, 'ए तुम्हारा घरनउ सिउ आचार जे मुझनइ तुम्ह-कन्हलि-थकां तुम्हारउ पिता हिवडा आवो इगी अवस्यांइ सूनां माहरा पगन ने उर काढी गयउ। ए डोसउ तु चलचित्त हुउ । लाज इ गमाडी । वली एतलइ नही सरइ । प्रभाति सुन्हई दोस चडाविसह। अनइ तुम्हे आपणा पितानउ मुख राखिसिउ । तेह-भणी हिवडा जि ऊठउ । आलस न करउ । ईणी वातइ माहरा प्राण जाइ छ। । तुम्हें नेउर "मांगी अणउ ।' तिवारई भर्तार कहइ. 'हं डोकरनइ गाढउ हाकिसु । तूं रखे मन-माहि संदेह आणइ । प्रभाति जो, ए डोकरनइ सिउंसिर्ड कहउ छउं ।' ईणी रीतिइं भर्तार हाथि करी, वली समनां सई कराव्या जु, 'सही हूं न पहिडउं ।' कहउ, स्त्रीनइ वसि पुरुष पडिउ हूंतु कउण कउण सम न करइ ? .. इसिई प्रभाति देवदिन्न पिता समीप जई कहिवा लागउ, 'तात! एहवउं सिउं कीधउं, जे वधूना पगनउं नेउर लीधउंतिवारइ ते वृद्ध कहइ, 'ताहरी स्त्री कुशीलि । मइ परपुरुष-साथि सूती दीठी। तेहनीप्रतीति-भणी मइं नेउर लीघउं।' तिवारई पुत्र कहइ, 'तात! तेहूंय जि पछोकडि सूतउ हतउपणि तुम्हनइ वडपण आविउं, तिणि करी बुद्धि गई । ते तु सती जि छइ । इहां विचार कार्ड नही ।। तिसिई वृद्ध कहइ, 'रे पुत्र ! जिवारइ मइ नुपुर लीध, तिवारइ तूं जोयउ, पणि तू घर-माहि हुँत उ । तेतलइ वधू आवीनइ कहइ, 'हिवइ ए वान हूं सांसहूं नही । धीज इ करीनइ हूं आपणउं कलंक ऊतारउ । कुलवंती स्त्रीनइ थोडउं इ कलंक घणूं दूषण ऊपजावइ । तेह-भणी १. A. B. K. तुरुण । २. K. पाछलि २, Pu. मागी आवउ । ३. C. P. L. हरकिसु, K. हार्कोस । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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