Book Title: Silopadesamala Balavbodh
Author(s): Merusundar Gani, H C Bhayani, R M Shah, Gitaben
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 184
________________ शीलोपदेशमाला-बालावबोध १४३. व्याख्याः -अमर-देव नर मनुष्य, असुर-तेह-माहि अदभुत-चरित्र, असामान्य पराक्रमी एहवउ लंकाधिपति रावण, जे त्रैलोक्यनउ कंटक, ते ही रावण जु पररमणी-परस्त्रीनइ विषइ रसिकतालगइ रांकनी परिई महा-विषम दशा-माहि पडि उ=राज्यभ्रश, कुलक्षय, मरणांत कष्ट पामि तु अनेरानउ सि कहीइ १ इति गाथार्थ । हिवइ वली शीलभ्र श-लगी जीव नकादि दुर्गति' भवांतरि लहइ अनइ इहलोक अनेक काल सीम अयश पृथ्वी-मांहि विस्तरइ । इसिउ दृष्टांते करी कहइ नेउरपंडिय-दत्तयदुहिया-पमुहाण अज्ज वि जयम्मि । असई त्ति घोस-घटा-टंकारो विरमइ न तारो ॥६६ । व्याख्याः -नूपुरपंडिता, दत्तनी पुत्री-प्रमुख अनेक स्त्री असती कुशील हुई । तेहनउ आचार आज-सीम 'ए असती' इसिउ तार-दीर्घ अयशरूप घंटानउ शब्द नथी फीटउ । सह कोइ इम कहइ जु-नूपुरपंडिता, दत्तदुहिता महा असती हुइ । इसिउ अपयश - शब्द जगत्रयमाहि आज-लगइ पसरी रहिउ छइ । अजी फीटतउ नथी । अनेरा घांटनउ शब्द थोडी वार रही फीटइ, पणि असतीनु शब्द न फीटइ । एतलई गाथानउ अर्थ हउ । सांप्रत नूपुरपंडितानउ दृष्टांत कहइ छइ-.. [३८. नूपुरपडितानु दृष्टांत] राजगृह-नगरि देवदत्त सुवर्णकार वसइ । तेहनु पुत्र देवदिन्न । ते पणि समस्त गुणे करी विख्यात हउ । तेहनी भार्या दुर्गिला एवइ नामि । पणि ते आपणउं रूप-लावण्य-सौभाग्ययौवन-रूप पाश, तिणि करी तरुण पुरुषरूप मृग, तेहनइ पाश-माहि पाडइ, अनइ यौवनमदि की उन्मत्त थकी निरर्गल फिरइ । एक वार ते दुर्गिला ग्रीष्म-कालि स्नान करिवा-भणी नदीड गई। तिहां स्नान करती नगरनइ जुवान पुरुषइ दीठी । तेतलइ तेहनइ मनि व्यामोह ऊपनउ । तिवारइ ते पुरुष कहई, 'हे सुभगि ! ए नदी, ए वृक्ष, ए हूं तुझनइ कुशल पूछउं छउं ।' वलतूं दुर्गिला कहइ, 'तुझनइ, वृक्षनइ, नदीनइ कल्याण हु। अनइ तुम्हारी इच्छा पणि अवसरि पहचाडीसिइ ।' इणि वचनि क्षण-एक ते पुरुष उन्मत्त सरीखउ थई रहिउ । एहवइ कोईएक बालक रमतां हता, ते आश्रइ वचन कही आपणपउ जणाविउं जु, 'देवदत्त स्वर्णकारनी वह, देवदिन्ननी प्रिया । अनइ मारउं घर पूर्व दिसिइ छइ।' ईम आपणउ संबंध जणावी घरि आवी । ते युवान पणि आपणइ घरि आविउ । पछड तिणि तापसी एक सीखवी दुर्गिला-कन्हलि मोकली । ते तापसी भिक्षानइ मिसिई स्वर्णकारनइ घरि आवी । तिवारइ दुगिला हांडला धोती हूंती। ते-आगलि प्रच्छन्नपणइ तिणि तापसीइ वात कही जु, 'तुझनई स्नान करतां जीणई पुरुषइ आपणउ भाव जणाविउ हूंतु, तीणइ हैं मोकली छ।' ए वात सांभली मन-माहि जाणी, आकार गोपवी, कहिवा लागी, 'रे पापिणी ! एहवलं वचन तई मुझनइ सिउं कहिउ' ? जे कुलीन हुइ, ते ए वात न सांसहइ ।' इम कही ते तापसी गलथी बाहरि काढी, काढतां पूठिइ मिसि-खरडिउ हाथउ दीधउ। पछते तापसी दूहवाणी हूंती पाछी आवी ते युवाननइ कहइ, अहो! ए पाषाण-सरीखी कठिन स्त्री, ए-कन्हलि मुझनइ सि मोकलइ ? मुझ नीकलतां जीणइ माहरी पूटिइं काजल-खरडी थाप पणि दीधी।' इम कही पूठउं देखाडिउं । पांच आंगुलोनइ अहिनाणि जाणिउं जु, 'हूं काली पांचमिई तेडिउ छठं । कांइ, धूर्तनी सान धूर्त जि जाणइ । पणि मुझनइ ठाम न जगाविउं ।' तेह-भणी वली तापसीनइ घणउं धन देई कहा, 'ते माहरइ विषइ सही अनुरक्त छइ । पणि किसिइं कारण-लगइ तूं जे निर्भरसी, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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