Book Title: Silopadesamala Balavbodh
Author(s): Merusundar Gani, H C Bhayani, R M Shah, Gitaben
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 182
________________ शीलोपदेशमाला घालावबोध १४१ इसिई तीणइ जि नगरि जिनदत्त श्रेष्टि, भद्रा प्रिया, तेहनउ पुत्र सागर सर्व-गुण-संपूर्ण छइ । इसिह अन्यदा जिनदत्त-श्रेष्टिडं ते सुकमालिका महा-रूपवंती दीठी । ते देखी चीतवइ, 'सही, ए कन्या माहरा पुत्रनइ योग्य छइ ।' इम विमासी साजन मेली सागरदत्त-कन्हलि सुकुमालिका पुत्री मांगी। तिवारइ श्रेष्टि कहइ, 'पुत्री तउ वरनइ दीधी जि जोईइ, पणि पुत्री-विण हूं एक घडी रही न सकउं । तेह-भणी जउ घरजमाई थाइ तु पाणिग्रहण करउ ।' सेठिइ ए वात पडिवजी । पछइ मोटइ विस्तारि पुत्रनउं पाणिग्रहण हूउं । तिहां सागरनइ हाथ-मेल्हावणीइ घणउं धन दीघउं । पछइ सागरिइं सर्व भोगांग-सामग्री मेली सिज्याइ स्त्रीनई विषइ एकत्र संयोग कीघउ । तेतलई पूर्वकर्मना उदय-लगइ जिम अंगार ज्वलइ, तिम सुकुमालिकानउ शरीर ज्वलतउं जाणी सागर भयभीत हूंतउ रात्रिनइ समइ नासी गयउ। तिसिइ प्रभाति जागी हूंती, भर्तार गयउ जाणी, यूथ-भ्रष्ट कुरंगीनी परिई सुकुमालिका रुदन करिवा लागी। तिसिइ ए वात पिताई सांभली, जिनदत्त श्रेष्टिना कहिउ । तिवारई जिनदत्ति आपणउ सागर पुत्र गाढउ 'हटकिउ, 'अरे निर्लज्ज ! ए भला कुलनो पुत्री तूं किम छांडइ ? रूडी अनइ पाडूई इ अंगीकार कीधी किम परिहराइ ? इणि कारणि तूं जईनई आदरि, सगपण म भांजि।' तिवारइ सागर पुत्र कहइ, 'वरि हूं कूद पडउं, पणि ए सुकमालिकानइ नादरउ ।' ए वात सागरदत्तइ भीतिनइ आंतरि थकउ सांभली पुत्रीनइ कहइ, 'वत्सि ! ते सागर तिम किमइ विरतउ हउ, जिम ताहरउ नाम न सांसहइ। तु वरिस ! असमाधि म करि । वली बीजउ को वर जोई सिइ ।' इम कही श्रेष्टि गउखि बइठउ बइठउ वर जोइ छइ । इसिइ भीखारी एक दीठउ । पणि कहाउ ? एक खापर हाथि छइ, माखी भणहणाट करतउ, कुतिपत, यौवनावस्थाइ संप्राप्त, वली कक्षाट जि परिग्रह, साक्षात्कारि दालिद्रीमूर्ति । एहवउ ते घर-माहि तेडी, अभ्यंग-उद्वर्तन करावी, चंदनइ लेपी, दिव्य वस्त्र पहिरावी, सागरदत्त कहिवा लागउ, 'ए माहरी पुत्री सुकुमालिका । तेहनइ परणी घणी लक्ष्मी विलसि ।' इम कहिइ इंतइ ते भिक्षाचर स्वर्गवास-समान श्रेष्टिनउ घर मानतउ घर-जमाई थई रहिउ । एहवइ ते सुकुमालिका शंगार करी वासघर-माहि आवी । पछइ जेतलइ ते स्पर्श करवा लागउ, तेतलइ ते अग्निदाह-समान । राक्षसीनी परिई सुकुमालिका नइ मानतउ ते भिक्षाचर खापर लेई रात्रिई नाठउ। तेतलइ वली प्रभात पुत्री रोती देखी पिता कहइ, 'वत्सि ! ए भवांतरना कर्मनउ विपाक । तूं असमाधि म करि । कर्म आगलि कोई न छूटइ । तेह-भणी हिव तू दान दिइ, संतोष आणी माहरइ घरि सुखद रहा।' पछइ सुकुमालिका आपणउं कर्म भोगवती पितानइ घरि थकी रहइ छइ । इसिइ अन्यदा महातमा एक विहरवा आविउ । तिवारइं प्रासुक अन्नि करी महातमा पडिलाभिउ । तिणइ महातमाइ वलतउ धर्मोपदेश तिम दीघउ, जिम वैराग्य-लगइ तीणी सुकुमालिकाई ते महातमा-कन्हलि चारित्र लीधउं । जिम निधन मनुष्य माणिक्यनइ पालइ, तिम ते चारित्र पालिवा लागी। घणा तप तपो, एकदा विशेष तपनी वांछाई गुरुणीमइ प्रणमी इसिउं पूछइ, 'भगवति ! जिम महातमा वन-माहि रही उग्र तप तपई, तिम इ पणिं वन-माहि जई तप करिस ।" तिवारई महासती कहई, 'महानुभावि ! पुरुषनई वनवासि रही तप करिवठं वीतरागे कहिउ छइ । पणि संयतीनइ नही । तु ही सुकुमालिका न मानइ । गुरुणी घणउं इ १.K.हाकिउ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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