Book Title: Silopadesamala Balavbodh
Author(s): Merusundar Gani, H C Bhayani, R M Shah, Gitaben
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 172
________________ शीलोपदेशमाला-बालावबोध १३१ आठमि चउदसि धरि पणि शील पाले । ए उपदेस सांभली दुर्गिलाई ए नीम लीधउ । क्रमिई समकित्व पणि पामिउं। वली ज्ञान-पंचमीनउं तर पणि की घउं । कालनइ योगि भर्तार-भार्या मरी सौधर्म-देवलोकि देवता थया । तिहां-हंतउ चवी दुर्गतनउ जीव तूं अजितसेन हउ, अनइ दुर्गिलानु जीव चिवी ए शीलवती हुई । जे भवांतरे ज्ञान आराधिउं तेह-लगइ शीलवतीनइ निर्मली बुद्धि हुई।' इम कहिइ हूंतइ जाती-स्मरण-ज्ञान उपनउं । तिहां आपणउं पूर्व भव स्वरूप द ठउं। पछइ बिहुँनई वैराग्य ऊपनइ हूंतइ चारित्र लेई, सम्यग् पाली, पांचमइ देवलोकि देवता हुआ। तिहां हंता वली एक वार मनुष्यनु जन्म लही मोक्ष पामिसिइं। __इति श्री-शीलोपदेशमाला-बालावबोधि श्रीशीलवतीचरित्र समाप्त ॥३३ हिव नंदयंतीनी कथा कहीइ [३४. नंदयतीनी कथा ] श्रीपोतनपुर नगरि नरविक्रम राजा राज्य करइ । तिहां सागरपोत नामा श्रेष्टि वसइ । तेहपुत्र समुद्रदत्त । ते बालपणा लगइ सर्व कला अभ्यासतु ऋमिइ यौवनपणउं पामिउ । इसिई सोपारापाटण-वास्तव्य नागदत्त श्रेष्टि, तेहनी पुत्री नंदयंतो महागुणवंति, तेइ साथि समुद्रदत्तनइ पाणिग्रहण हउं । हिव समुद्रदत्तनउ जे बालमित्र सह्देव, ते साथि कथा-काव्य-विनोद करी काल अतिक्रमावइ । ___अन्यदा समुद्रदत्ति सहदेवनइ कहिउं, 'हे मित्र ! पुरुष ते प्रमाण, जे आपणी ऊर्जी लक्ष्मी भोगवइ । तेह-भणी चालउ आपणपे देशांतरि जई लक्ष्मी ऊगर्जीइ ।' तिवारइ वलतं सहदेव कह पितानइ कहि, जिम आपणि चालीइ ।' पछइ समुद्रदत्त बाप-कन्हलि आवी कहइ. 'मझनड आदेश दिउ, जिम हूं देशांतरि चालउं । तिवारइ पिता कहइ, 'आपणइ घर धननी कोडि छ । देशांतरि जईनई किसिउ करिसु । ए लक्ष्मी आपणी इच्छाई विलसि । कांई ? ए वात साची हई. जे आंगणइ कल्पवृक्ष अनइ बेडि-माहि फल लेवा जईइ ।' वली पुत्र कहइ, 'तात ! जे कापुरुष हुइ, ते बाप ऊपार्जिउं धन विलसइ ।' ए वात पुत्रनी सांभली पिता शोक अनइ आनंद धरतउ, गद्गद-स्वरि रोतु कहइ, 'वत्स ! ए वात तु साची । जे भाग्यवंत पुत्र हुइ, तेह जि आपणी ऊपार्जी लक्ष्मी विलसइ ।' इत्यादि वचन कही पिताइं ए वचन मानिउं । - पछइ समुद्रदत्त घणां क्रियाणां मेली, द्रव्यनी कोडिइ प्रवहण पूरावी, मातापितानी अनुमति मांगी, भलइ मुहर्ति समुद्रदत्त-मित्र-सहित प्रवहणि चडी चालिउ । तिसिइं रात्रिनइ समइ प्राणवल्लभा नंदयंती चीति आवी । तिहां तेहनइ विरहि झूरतउ असमाधि करतउ मित्र-प्रति इसि कहा 'मई सह मोकलाविउ, पणि नंदयंती प्रिया रति आवो हंती. तिणि करी मह मोकलावी नही । ते माहरा मन-माहि अपार खटकइ छइ ।' तिवारइ मित्रिई कहिउ, 'अजी कांई 'विपर्छ छइ ? पाछउ जई मिली आवि ।' तिवारइ समुद्रदत्त पाछउ वलिउ । अर्धरात्रिनइ समइ घरनइ बारणइ आविउ । पणि सुरपाल पोलीउ जावा न दिइ । तिसिइ समुद्रदत्तिई पोलीआनइ सर्व वात जणावीनइ कहिउं, 'एक वार माहि मूकि, जिम नंदयंती-प्रियानइ मिली आवउं । अनइ जउ न मानइ, तउ ए माहरी नामांकित मुद्रिका लइ ।' इम कही सूरपाल-पोलीआनइ आपणी नामांकित मुद्रिका दीधी । पछइ आपणइ घरि आवी बारणइ ऊभउ रही इम चीतवइ, 'जोर्ड, १.K विणठउं नथी । C. विणठउं छइ, पाछउ जा, मिली आबि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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