Book Title: Silopadesamala Balavbodh
Author(s): Merusundar Gani, H C Bhayani, R M Shah, Gitaben
Publisher: L D Indology Ahmedabad
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१३८
मेरुसुंदरगणि-विरचित सांभली चौंतवइ, 'तां भाई तु गया अनइ रत्न इगयां । जु मई ए वात पडिवजी, तु हिव हूँ पाछी किम मूकडं ? वरि कटक करीनइ ए रत्न लेई आवउं।' इम चीतवी दूत मोकली चेडारायनई कहाविउ जु, 'हल्ल-विहल्ल बेहं उरहा' मोकलिओ ।' तिवारइ चेडउ राजा दूतनइ कहइ, 'अहो दूत ! ए माहरा दोहीत्र शरणइ आव्या, ते मइ किम देवराई ?' इम कही दूत पाछइ वालिउ ।
तेतलइ कोणिक सिंहनी परिई रीसाणउ हूंतउ कटक मेली विशालानगरी-भणी आविउ । तिवारइ चेडउ राजा पणि सामुहउ आविउ । हिवइ चेडारायनइ परिग्रह-परिमाणि एक जि बाण नांखिवानउ नीम छइ। इसिइ पहिला दिनि कोणिका आपणउ भाई काल इसिइ नामि सेनानी कीघउ । तिहां झूझनइ समइ चेडारयनइ एक-इ बाणि परोक्ष हउ । वली बीजइ दिनि बीजउ भाई हणिउ । इम चेडइ राय नवे दिहाडे नव भाई कोणिकना हण्या । तिहां कोटि-संख्य सेभट पडया । किहांइएक एहवी संख्या दीसइ छड जउ, एक कोडि असी लाख एतला सुभट पड्या । एहवउ महा-अरिष्ट झूझ हूउं ।
हिवई रात्रिन समइ हल्ल-विहल्ल सेचनकि हाथीइ बइसी नीकलई, अनइ कोणिकनउं. कटक हणी पोछा आंवई । इम करतां कोणिक घणाइ उपाय करइ, पणि हल्ल-विहल्ल किमहि वसि नावइ । पछइ कोणिकइ खाई एक 'खणी, खयरना अंगार भरी, छोनी ढांकी मूकावी छइ । इसिइ तिम जि गत्रिइ हल्ल-विहल्ल सेचनकि बइसी आव्या। तिसिइ हल्ल-विहल्ले सेचनक प्रेरिउ । पणि सेचनक आगि जाणी आघउ पइसइ नही । जिवारइ बलात्कारि हाथीउ प्रेरिउ, तिवारइ हाथोई सूढिइ करी हल्ल-विहल्ल पूठि-हंता ऊतारी आपणि खाई-माहि पडिउ । तेतलइ आगि प्रकट हुई। पछह हल्ल-विहल्ल उरता करता दीक्षानी वांछा करिवा लागा । इसिइ श्रीशासन-देवताइ ऊपाडी श्रीमहावीरनइ समोसरणि मक्या । तिहां तीणे दीक्षा दीधी ।
हिवइ कोणिक विशाला लेई न सकइ । तिवारइ वली कोणिकइ एहवी प्रतिज्ञा कीधी, हूँ तु कोणिक, जु विशालनगरी-माहि रासभी जोतरी हल खेडावडं । नहीं तु अग्नि-माहि प्रवेस करउं।' इसी प्रतिज्ञा कीधी, तुही गढ लेवराइ नही । तिवारइ कोणिक मन-माहि विखवाद करिवा लागउ । तिसिई शासन-देवताई गुरुनउ प्रत्यनीक कूलवालूउ जाणी, रीसाणी हंती, आकाशि रही एहवी वाणी बोली
'समणे जइ कूलवालए मागहिआ गणिआ य आणए ।
राया य असोगचंदए वेसालिं नगरिं गहिस्सए ॥१॥' एहवी गाथा सांभली कोणिक राजा हर्षिउ । कांई ? देवतानी वाणी निःफल न हुइ । पछइ राजाई मागधिका वेश्या तेडी वस्त्र-अलंकारे सत्कारीनइ कहिउं, 'हे भद्र ! कूलवालूउ मुनि भोलवी इहां आणि ।' तिवारई वेश्याइ ए वात पडिवजी । पछइ कपट-श्राविका हुई, तेवडतेवडी पांच-सात सखी साथि लेई, संघनी रनना करी, तीर्थ नमस्करती. जीणइ प्रदेसि कूलवालूउ मुनि छइ तिहां आवी । भावना-पूर्वक मुनि वांदी, आगलि बइठी । तिसिइं मुनिइं धर्मलाभ कही पूछिउं, 'तुम्हे किहां-हूंता आव्या ?' तिवारइं मागधिका कहइ, 'नाथ ! अम्हे चंपानगरी हूंता तीर्थ नमस्करता नमस्करता इहां आव्या। तु आज अम्हे जंगम-तीर्थ मेटिउं । महात्मन् ! हिव अम्ह-ऊरि कृपा करी बइतालीस-दोष-विशुद्ध आहार छ। ते आज तू लइ ।' १.K. अत्र । २. 'खणी' पाठ मात्र K. मां ज छे. ३. K. आषत गमन करइ ।
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