Book Title: Silopadesamala Balavbodh
Author(s): Merusundar Gani, H C Bhayani, R M Shah, Gitaben
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 171
________________ .१३० मेरुसुंदरगणि-विरचित कर छउं । तुम्हनइ घणी इ पूरिसिउ ।' पछइ राजा जेतलइ जिमवा बइठउ, तेतलइ सघली इ सामग्री राजा-आगलि आण।। राजा जिमवा लागउ । पणि मन-माहि कउतिग ऊपनउं । तिहां वली शीलवतीइ तांबूल-वस्त्र अलंकारे करी चारी लाख टंकानउ व्यय कीधउ । तिवारई राजा संतोषिउ हूंतउ चीतवइ, 'सही ए कोई अपूर्व सिद्धि छइ, जे बोल बोलतां सर्व संपन्न ।' पछइ राजा शीलवतीनइ पूछइ, 'हे भद्रि ! ए आश्चर्यकारक किसिउं ?' तिवारई शीलवती कहइ, 'माहरइ घरि च्यारि कामिक यक्ष छइ। ति णि करी सर्व वस्तु संजइ ।' तिहां राजाई शीलवती बहिन करी मानी। पछइ वहुमान-पूर्वक वस्त्र -आभरण देई च्यार इ यक्ष माग्या । तिवारइ शीलवतीइ वचन मानि । कहिउं, 'ए च्यारिइ यक्ष तुम्ह- भागलि आणी मूकिसु ।' ए वात सांभली राजा आपणइ घरि गयउ । पछई शीलवतीइ ते च्यार इ कूआ-माहिथो काढी, बावने चंदने लींप्या, वांसना करंडीया-माहि घाती रथि बइमार्या । पछइ भागलि अनेक धूर ऊगाहीते, वाजिन वाजते, नाटक करावाते, इणी रीतिइ करंडीया राजा-कन्हलि आणीवा लागा । तेतलइ राजा साहु आवी बहुमानपूर्वक व्यारि ई करंडीया घरि लेई गयउ । पछ। राज इं सूआर निवारिया, कहिउँ, 'आज रसवतो यश्च जि देसिइं ।' पछइ भोजननइ अवसरि राजाई पूजी, अर्ची, भोगादि करो कहिलं, 'अहो यक्षो ! तुम्हे नीपनी रसवती आपउ।' तिवारई पेला किहां-थकी आपइ पछइ राजाई जिम करंडीया ऊघडाव्या, तिम माहि. थका च्यार इ ते कराल-विकराल अस्थिचर्मावशेष नीकल्या । तिवारह राजा बीहनउ हूंतु पूछइ, 'तुम्हे क उण ? राखस कि झोटींग कि प्रेत तिवारइ ते च्यार इ कहा, "स्वामी! अम्हे ताहरा कामांकुरादि च्यर इ पुरुष ।' इम कहिइ तह राजाइ उलख्या । पछइ सर्व वृत्तांत पूछिउ । तीणे सघली इ वात जिम हुई, तिम राजा-आगलि कही। तिसिइ राजा कहइ, 'वत्सो ! ए तुम्हनइ कउण अवस्था आवी ?' एहवउं स्वरूप जाणी राजादिक लोक सह चमत्करिया । तिहां राजाई शीलवतीनां शीलनी प्रसंसा कीधी । पछइ राजाइ शीलवती तेडावीनइ कहि, 'हे पतिव्रते! ताहरी ए माटी बुद्धि । हे महासति ! एहवा दृढिमा शीलनी अनेथि न दीसइ । जिवारई मई अजितसेननई गलइ फूलनी माल दीठी, तिवारइ अम्हे ताहरउं शील जाणिउं । तु हिव तू अम्हारउ अपराध खमि । आपणा बांधव ऊपरि कोप म करेसि ।' पछई तेहना शीलनइ प्रमाणि देवताए कुसुमनो वृष्टि कीधी। तिहां राजादिक लोके परस्त्रीना नीम लीधां । पछइ राजाइ शीलवती सत्कारी सन्मानी घरि मोकली। हिवइ अजितसेन शीलवती प्रिया-सहित सुखिइं रहइ छइ । ईसिइ 'श्रीदमघोषसूरि ज्ञानी तिहां आव्या । राजादिक सर्व वांदिवा गया । पछइ देसनानइ अंति ज्ञानी मुनि शीलवतीनइ कहा, 'हे भद्रि ! पूर्व-भवनां अभ्यास-लगी ताहरउ शील दीपइ छइ ।' तिसिइ अजितसेन पूछइ, 'किम ? तिवारई ते ज्ञानी मुनि शीलवतीनु पूर्वभव कहइ, 'कुशपुरि नगरि सुलस श्रावक वसइ । तेहनी भार्या सुजसा । तेहनु धर्मपुत्र दुर्गत, अनइ तेहनी भार्या दुर्गिला । ते एकदा सुजलासाथि महासतीनी पोसालइ आवी । तिणि सुजसाइ पोथी पूजी । ते देखी दुर्गिला महासतीनइ पछइ, 'ए किसिउं?' तिवारइ महासती कहइ, 'आज अजूआली पांचमि छ। ए पोथी पूजतां, शील पालतां मोक्ष पामीइ ।' ए वात सांभली दुगिला नींतवइ, 'ए माहरी स्वामिनी धन्य, जे हम दान दिइ छ । अनइ एक हूँ अभागिणी, जे दान देई न सकूँ ।' तिवारई महासती कहइ. 'जु तई दान न देवाइं, तु तू सुद्ध शील पालि, जावज्जीव परपुरुषनउ नीम ल्यइ । अनइ १.P धर्मघोषसूरि, Pu. श्रीमदघोषसि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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