Book Title: Silopadesamala Balavbodh
Author(s): Merusundar Gani, H C Bhayani, R M Shah, Gitaben
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 149
________________ मेरुसुंदरगणि-विरचित तिवारइं नल कहइ, 'मइ जु भरतार्ध छांडिलं, तु वली ईणइ रथि सिउं कीजइ ?' इम कही दवदंतो-सहित नल चालिउ । तिसिइ प्रधान वीनवइ, 'स्वामी ! दवदंती रथ-विण पाली चाली नही सकइ, तेह-भणी कृपा करउ । एतलउ बोल मानउ ।' पछइ नल रथ लेई चालिउ । तिसिइ चालतां मार्गि पांच सई हाथनउ थांभउ एक दीठउ । ते थांभउ एकणि हाथि केलिनी परिइ लेई वली थापिउ तीणई थानकि । तेहवइ ऋषि एक आविउ । तीणइ कहिउं, 'वली इहां नलराजा राज्य पामिसिइ ।' इम वात सांभलो नल-दवदंती नगरी-बाहरि नीकली कहा, 'हिवइ केही दिसिई जईसिइ ?' तिवारइ दवदंती कहइ, 'स्वामी! कुंडिन पुरई जईइ, जिहां माहरउ पिता छइ ।' तिवारई नलि कुंडिनपुर-भणी रथ खेडिउ । पछइ मार्ग उल्लंघतां महा अटवी-माहि रथ पडिउ । तिसिइ गमे गमे भील आव्या । एहवइ नल रथ-हंतु ऊतरी, खड्ग लेई, सामुह थाइवा लागउ । तेतलइ दवदंतीइ कहिउं, 'हे नाथ ! शीआलीआ-ऊपरि ताहरउ सिउ आक्षेप ?' इम कहती दवदंती हूंकारउ मूकइ । जे जे हूंकाग सांभलइ, ते ते अचेत थई भुंइ पडइ । पछइ भीले पलायन कीधउं । हिवइ जे रथ अलगउ मूंकिउ हूंतु, ते रथ बीजे भीले लीघउ । पछइ नल-दवदैती पाला चालिवा लागा । . इम चालतां मार्गि जातां थाकां। किहां एक वृक्ष-तलइ जइ बइठ । तिहां नल केलिने पत्रे करी दवदतीनइ वाय घातिवा लागउ । दवदंती पणि नलना पग चांपइ छइ । एहवइ दवदंती तृषाक्रांत हुई । तेतलइ नलि कमलने दले करी जल आणी पायउं, सुस्ती कीधी। तिवारइ दवदंती पूछइ, 'अजी अटवी केतली थाकइ ?' नल कहइ, 'सउ जोयण-माहि अजी पांच जि मोयण आव्या छ।' इम वात करतां सूर्य आथमिउ । पछइ अशोकवृक्षना पल्लव लेई साथरउ कीधउ । तिहां दवदंती सूती । एहवइ गाइनउ शब्द सांभली, वसतु तिवार इं जाणी, नलि कहिउँ, 'इहां कोई तापसाश्रम घटइ ।' तुही दवदंती ऊठी न सका । नलि कहिउँ, 'हं पाहरी छ । तूं सुखिई निद्रा करि।' पछइ दवदंतीनइ नीद्र आवी । एवइ नल चौतवइ, 'जे कष्टि आविइ सुसरानइ शरणि जाइ, ते अधम । एह-भणी जु दवदंतो बापनइ घरि जाइ, तु हं भावइ तिहां जाउ । अथवा ए दवदंतीनइ शीलनइ प्रमाणि कांई उपद्रव नही ऊपजइ ।' इम चीतवी वन सरीखांकठिन चित्त करी, छुरीइ करी जांघ विदारी, रुधिर काढी, वस्त्रनइ छेहडइ एहवा अक्षर लिख्या जु, 'ए वड-तलइ बि बाट छई । तिहां डाबी वाट पिताना घर-भणी जासिइ, अनइ जिमणी वाट सुसराना घर-भणी जासिइ। हिवइ जिहां ताहरइ विचारि आवइ, तिहां तूं जाए।' एहवा अक्षर लिखीनइ नल मउडइ-सि निकलिवा लागउ । तिवारइ आपणा जीवनइ कहइ, 'अरे जीव ! तू चांडालनी परिई निर्दय । कांई ? जे ए अबलानइ मूकी जाइ छह ।' वली विमासइ, 'जे अर्धउं वस्त्र पहिरिउ छइ, अर्धउ दवदंतीनइ बिछाहिउं छइ, ते किम खांचि लिं? इम चीतवतउ वली कठिन चित्त करी, छरिइ करी वस्त्र कापिङ । वली चीत. वइ, 'ए हाथनइ धिक्कार हु, जे वस्त्र कापतां हाथ वहिउ । तु अरे जिमणा हाथ ! एतली दया इन ऊपनी ? इत्यादि अनेक संकल्प-विकल्प चीतवी नोकलिउ । तिसिई आघेरउ जई वली नल चौतविवा लागउ जु, 'हूं आपणउं मुख किम देखाडिसु इमिउं कहितउ वली वली पाउँ जोत उ, वली दैवनइ उलंभा दिइ, 'अरे दैव! अरे विधि! तईए सर्व-गुणशालिनी दवदंती कांई नीपाइ ? अनइ जुनीताई तु एवडा दुख-माहि कांई घाती ? तु अहो वन देवताउ ! ए बल्लभा तुम्हनइ भलावी छइ । तिम करिज्यो जिम एहनइ कष्ट नावइ ।' इत्यादि विलाप करतउ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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