Book Title: Silopadesamala Balavbodh
Author(s): Merusundar Gani, H C Bhayani, R M Shah, Gitaben
Publisher: L D Indology Ahmedabad

View full book text
Previous | Next

Page 152
________________ शीलोपदेशमाला-बालावबोध १११ फलनउ स्वाद, ते राज्य-सुख । जे भमरा, ते परिवार । अनइ हाथीइ जे सहकार उन्मूलिउ, ते दैविई नल राज्य-हंतउ कादिउ । अनइ जे वृक्ष-हंती पडी, ते जाणे नल-हंती है अलगी हई। तु ईणइ सउणइ मुझमइ नल दोहिलउ मिलिसिइ ।' इम सउणानउ अर्थ विचारी पछइ तिम रोवा लागी, जिम वृक्षनइ पणि रुदन आविवा लागउं । वली विलाप करती कहइ, 'हे नाथ ! हे स्वामी ! मुझनइ मूंकी तूं किहां गयउ ? हं तु तुझनइ कांई भार न करती, कांचली जिम सापनइ भार न करइ तिम । अथवा तूं जु वन-माहि लुकी रहिउ छइ, तु ए हासउं शोभत नथी । अथवा हूं वनदेवतानइ प्रार्थना कर छउं जउ, मुझनइ नल देखाडउ । अथवा वली पृथ्वी ! तूं चि-खंड था, जिम हूं माहि पइसु ।' इम भरतारनई चीतवती, अटवी-माहि सूनइ मनि फिरती हूंती, आपणइ वस्त्र अक्षर लिख्या दीठा । ते देखी हर्षित हूंती वांचिवा लागी। पछइ मन-माहि चोंतवइ, 'तां हूं नलनां मन-माहि छ । आपणपे गयउ, पणि मुझनइ आदेस देई गयउ | तु हिव हूँ ए बडनइ अहिनाणि पितानड घरि जाउं । जिणि कारणि, पति-रहित स्त्रीनइ पिता जि शरण ।' इम विमासी नउकार स्मरती पिताना घर-मणी चाली । मार्गि जातां अनेक डाम खूनई छई, तिणि करी लोही नीकलइ। वली मार्गनउ श्रम, तिणि करी परिस्वेद ऊपजइ छइ । पणि तेहना शीलनइ प्रमाणि तेहवा इ वन-मादि महा हिंसक जीव ते साम्हा सखाईआ हुआ । इम जातां आगलि संघात एक दीठउ । ते संघात देखी दवदंत नइ समाधि ऊपनी । एहवड भीले आवी संघात ग्रहिउ, जिम विषय कामीनइ ग्रइइ । तिवारइ सती दवदंती ऊचइ सादि भीलनई कह्इ, 'अरे भीलो! जाउ जाउ ।' तु ही संघातना लोक बीहवा लागा। तिसिह भील संघात लूसिवा-भणी धाया । तेतलइ सती कहइ, 'अहो लोको ! म बीहउ। संघात मई राखिउ । ते कउण छह, जे तुम्ह-साम्हउँ जोई सकइ ?' इम कही जेतलइ हंकारउ मंकिउ, तेतलइ ते चोर सर्व नासी गया। जिम जांगुली-मंत्र-गुणिइ साप नासइ, तिम ते भील नाठा। पछइ संघातनउ अधिपति सपरिवार आवी, हाथ जोडी, सती-आगलि ऊभउ रही कहइ..'मात ! आज तई जीवदान दीघउ ।तु तू कउण? ए वन-माहि तू एकली कांई भमइ ? आज अम्ह पुण्य-लगइ तूं इहां आवी ।' तिवारई वलत् दवदंती कहइ निल-राजाइ द्यत-व्यसनि करी राज हारित । इत्यादि सर्व वात कही । पछद सार्थवाहि नलनी प्रिया जाणी, बहिन करी मानी। पछड सार्थवाहि दवदंती तंगोटी माहि राखी । मुखिई मार्ग उलंघिवा लागा । तेतराइवरसाल विउ । कादम माहि गाडां खूचिवा लागां । बलद हाली न सकई तिवारद्ध च्यारि मास संघात तिहां रहिउ । पछइ सती घणा कालनी स्थिति जाणी सार्थवाहनइ विण-कहि एकाकिनी नीकली । तिहां-हंती जेतलइ आघी चाली, तेतलइ राक्षस एक सामुहउ आविउ । कहिवा लागउ, 'हं घणा दिनन भूखिउ छउ। आज तुझनइ खाइसु ।' तिवारई सती बीहती इहती धीरपण अवलंबीनइ कहिवा लागी, 'अहो राक्षस ! जु जीव जायउ. तु मरण छन् । पणि परस्त्रीन स्पर्शि तूं भस्म थाएसि ।' इणि वचनि राक्षस हर्षिउ हूंतु कहइ, 'वच्छि! तूठउ । भणि, सिउ उपगार करउं ?' तिवारइ सती कहइ, 'जु तूं देवता छइ, तु कहि, मुझनइ नल कहीइ मिलिसिह" सिई अवधिनइ बलि राक्षस कहइ, 'बारमइ वरिसि पितानइ घरि तुझनइ नल मिलिसइ ।' पछा राक्षस कहइ, 'हे भद्रि! जु कहइ, तु तुझ इक्षण एक-माहि पितानइ घरि लेई मूक तिवार सती कहइ, 'तूंहनइ कल्याण हु । हूं परपुरुषनउ स्पर्श न करउं ।' इणि वचनि देवता प्रकट हई. आपणउं रूप देखाडी, अदृश्य हउ । हिव दवदंतीइ बार वरसनी अवधि जाणी पछह पडवर अभिग्रह कीघउ, 'जां भर्तार न मिलइ, ता-सीम रक्त वस्त्र, तांबूल, भूषण, विलेपन, विगइ-एतलानु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234