Book Title: Silopadesamala Balavbodh
Author(s): Merusundar Gani, H C Bhayani, R M Shah, Gitaben
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 160
________________ शीलोपदेशमाला-बालावबोध ११९ हिव केतला-एक दिवस कीर्तिवर्द्धन कमला-बहिन-समीपि रही, पछइ आपणइ नगरि पहुतउ । पछइ रतिवल्लभ कमला-सहित गृहस्थधर्म पाली, अवसरि पुत्रनइ राज देई, दान, संघपूजा दिक भक्ति करी, श्री-चंदनाचार्य-समीपि दीक्षा लीधी । चारित्र पाली, घातीयां कर्मनइ क्षयि केवलज्ञान पामी, बेहू मोक्ष पहुता । इति श्री-शीलोपदेशमाला-बालाविबोधे श्री कमला-महासती कथा ॥३१॥ हिव कलावतीनी कथा कहीइ [३२. कलावतीनी कथा] ईगड जंबदीपि, मंगलावती-विजयि श्रीशंखपुर नगर । तिहां शंख नामा राजा राज्य करइ । हिवा ते राजा एकदा सभा-माहि जई बइठउ । एहवइ गज-श्रेष्टिनउ पुत्र दत्त एवइ नामि, तिणि भेट आणी राजा-आगलि मूकी प्रणाम कीधउ । तिसिइं राजाइ आगता-स्वागत पूछिउं । वली राजा पूछइ, 'कहउ, कांई देसांतरि कउतिग द टउं ?' तिवारइ दत्त कहइ, 'राजन ! देवशालपुरि नगरि है वाणिज्य-नइ हेतिइं गयउ हूंतउ । अनइ वाणिज्य करी जु पाछउ वलिउ, तेतलई अंतरालि कन्या एकनउं रूप दीठउं । ते तां मुखि करी न कहवाई । पणि तेहनी वानगी आणी छह । हम कही चित्रलिखित रूपनी पाटी राजा-आगलि मकी । ते रूप देखी राजा दत्तनइ कहइ, 'ए रूप देवीन उं घटइ। मनुष्य-माहि एहवउं रूप किहाँ ?' तिवारइ दत्त कहइ, 'स्वामी ! ए मानवी जि, पणि विधात्राइ आपणउं कुशलपणउं' जणावानइ अर्थि एहवउ रूप कीधउं ।' 'तु ए कउणि ? दत्त कहइ, 'देवशालिपुरि श्री-विजयसेन राजा, श्रीमती राणी, तेहनी पुत्री कलावइ एहवइ नामि । ते जिवारई वयःप्राप्त हुई तिवारई कन्याई एहवी प्रतिज्ञा कीधी जु, 'हूं तेहनउं पाणिग्रहण करिसु, जे बिहु बोलनउ ऊत्तर देसिई ।' ए वात सांभली राजा गाढउ सचिंत हूउ । पछ्इ सयवरा मंडप मडाविउ । एहवइ आपणा नगर-भणी हूं पाछउ चालिउ । जेतलइ हूं देवशालि नगरनइ उद्यानवनि आविउ, तेतलइ राजा विजयसेननउ पुत्र जयसेनकुमार दुष्ट घोडइ अपहरिउ मूर्छागत जातउ दीठउ । ते मह जीवाडिउ । पछइ सुखानि बइसारी घरि लेई गयउ । तिवारई राज ई ईणइ उपगारि हं पुत्र करी मानिउ। ह्विइ एकदा राजा सभा-माहि मुझनइ कहिवा लागउ, 'अहो दत्त ! जिम जयसेनकुमारनइ उपगार कीघउ, तिम माहरी बेटी कलावतीना वरनी चिंता करि ।' तिवारई मई कहिउं, 'श्री-शंखराजा योग्य छइ ।' इसिउं कही पछइ मई कलावतीनउं रूप पटि लिखार्व, है इहां अविउ | ए तु रूप मई वानगी मात्र आणिउं छई । सघलू इ रूप लिखाइ नही ।' ए वचन सांभली राजा वली वली रूप सामुहउं जोतउ, मूर्छागत हूंतउ, दत्त-प्रति कहइ, एवडु माहरु भाग्य किहां छइ, जे एहवा पात्रनउ संयोग मिलइ ?' तिवारई दत्त कहइ, 'नाथ ! तूं असमाधि म करि । तुझनई सउण ते हुइ छइ, जे ए पत्नी ताहरी होसिइ । पणि तुम्हे सरस्वतीनह आराधउ, जिम च्यारि प्रश्ननउ ऊर आवडइ ।' इणि वचनि शंखराजा ब्रह्मव्रत पालतउ सरस्वती आराधिका लागउ । तिसिइ सातमइ दिनि सरस्वती तूठी । इसिउं कहइ, 'वत्स ! ताहरा हाथ नइ स्पर्शि मात्रि पूतली ते ही बोलिसिइ, च्यारि प्रश्नना ऊतर पणि देसिइ ।' इम कही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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