Book Title: Silopadesamala Balavbodh
Author(s): Merusundar Gani, H C Bhayani, R M Shah, Gitaben
Publisher: L D Indology Ahmedabad
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१२२
मेरुसुंदरगणि-विरचित तिवारइ प्रघानि कहिउँ, 'शंखराजा ते कलावतीनइ वियोगि प्राण त्याग करइ छ । पणि जु ते
आवइ, तु प्राण न छांडइ।' इम कहइ हूंतइ तापसे जाणिउं, ‘ए सही राजानउ प्रधान घटइ ।' पछइ दत्तप्रधान नइ पुत्र-सहित कलावती देखाडी । जिम कलावतीइं ते राजानु मित्र दूर-तु आवतु दीठउ, तिम जि 'प्रउहंस ऊपन इ रोवा लागी । तेतलई दत्त आवीनइ कहइ, 'बहिन ! म रोइ । कीधां कर्मनां फल भोगव्यां विण न छूटीई । जे तीर्थकर देव छइ, ते ही कर्म-आगलि न छूटइ। इम जाणी धीरपणउं आदरि । अनइ ईणइ रथि बइसि । आपणइ दर्शनि करी राजानइ जीवदान दिइ। नहीतर पश्चात्ताप करतउ राजा काष्ट-भक्षण करिसिइ। मइ आजना दिन-ताई जिराजा राखिउछइ।'
पछइ कलावती तापसनी अनुज्ञा मागी दत्त-साथि रथि बइसी चाली । तिहां-हंती पंथ अवगाही आपणा नगरनइ परसरि आवी । तेतलइ शंखराजाइ वात सांभली। पछइ आंखिई
आंसू पाडतउ राजा सामहउँ आवीनइ कहइ, 'हे भद्रि ! जे मइ तुझनइ विडंबना कीधी, तू वन-माहि मूकावी; ताहरा हाथ कपाव्या, ते माहरु सर्व अपराध खमि ।' इम कही महाविस्तारि पुत्र-सहित नगर-माहि आणी । तिहां सउणानइ अनुसारि पुत्रनइ पुर्णकलस ए नाम दीघउं । अन्यदा कलावतीई एकांति अवसर लही राजा पूछिउ, 'स्वामी! कीणइ दोषि वन-माहि मंकी माहरा हाथ छेदाव्या ते कहउ ।' तिवारई राजा सलज्जपणई कहइ, 'हे भद्रि ! तुझ-माहि सर्वथा कलंक नथी, पणि ताहरा भवांतरी कर्म-लगइ मइ ते कांई कर्म आचरिउ, जे मातंग इ नाचरइ ।' तिवारइ राजाई आपण सर्व वृत्तांत कहिवा मांडिउ, 'हे सुभगि! जिणि दिहाडइ मइ तुझनइ आपदा अणावी ते-हूंतू अनेरइ दिहाडइ, ताहरा बहिरखा देखी मुझनइ उरतउ ऊपनइ, हूं काष्ट भक्षण करिवा लागउ । तिसिई दत्त-मित्रइ आवी प्रतिज्ञा करी हूँ राखिउ। पछई हैं प्रासाद देव नमस्करी रात्रिनइ समइ नगरनइ परसरि रहिउ । तिहां मइ निद्रा-माहि इमिउ सउणउं लाध ज अणपाकी वेलि कल्पवृक्ष-हंती खिसी पडी । अनइ वली ते वेलि संपूर्ण फल लागड तत्काल कल्पवृक्षि चडी । पछइ प्रभाति मइ गुरु पूछया। गुरे कहिउं, 'राजन् ! कल्पवृक्ष-समान तूं जाणिवउ, अनइ वेलि समान ताहरी प्रिया । ते तुझनइ पुत्र प्रसविइ मिलिसिइ।" ते तूं मिली।'
इत्यादि स्वप्न-विचार कही पछइ राजा कलावती-सहित वन-माहि मुनिनइ वांदिवा गयउ। तिहां देवपजा करी, मुनि वांदी भार्या-सहित राजा आगलि बइठउ । तिसिइ मुनिइ देसना दीधी। पछइ देसनानइ अंति राजा पूछइ, 'भगवन् ! कलावतीइ कउण कमें कीधउं, जे निदोष कलावतीना मई हाथ छेदान्या ?' तिवारइ मुनि तेहन उ पूर्व-भव कहिवा लागउ, 'श्री विदेहि क्षेत्रि, ४ महेंद्रपुरि नगरि, विक्रमराजा लीलावती-भार्या-सहित सुखई राज करइ छइ । इपिइ सुलोचना एहवइ नामि पुत्री जाई। माता-पितानइ महा-वल्लभ हूंती। क्रमि क्रमि वाधती यौवनावस्थाइ आवी। हिव एकदा पुत्री राजानइ उत्संगि बइठी छइ । एहवइ कुणिहि एकिणि एक सूडउ मनोहर आणी राजानइ भेटिइ दीवउ। राजाई ते उपाध्यायनइ देई भणाविउ । राजानइ आशीर्वाद देवा लागउ। पछइ राजाइ ते शुक पुत्रीनइ दीधउ । जिम दालिद्री मोदक पामी हर्ष आणइ, तिम ते शुक लही पुत्री १. C. L.प्रउंहस K. प्रहुम Pu. प्रहहंस P. पहंस । २. K. भवांतरीक कर्म A.B. भवांतरी कुकर्म C. भवांतरी कर्म । ३. K. ते हुतु पहलइ दिनि, Pu. ते इंतु अनेरइ । ४. A.C. महेन्द्रपुरि नगर विक्रम ..B. K. महेन्द्रपुरि नरविक्रम... ५. P. मनोहारिङ L. मनोहरीउ A. मनोहारी ।
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