Book Title: Silopadesamala Balavbodh
Author(s): Merusundar Gani, H C Bhayani, R M Shah, Gitaben
Publisher: L D Indology Ahmedabad
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११०
मेरुसुंदरगणि-विरचित
कुब्ज-रूपि नल किरण देई हाथी-ऊपरि चडिउ । ए स्वरूप दधिपर्ण-राजाई देखी मन-माहि चीतविउ, 'ए कोई असामान्य पुरुष ।' इम चीतवी आपणा कंठनी रत्नमाला नलनइ गलइ घाती। तिवारइ नल हाथीइ बइसी, आलान-स्तंभि आणी, बांधिउ । पछइ दधिपर्ण पट्टकूल, सर्व आभरण देई बहुमानपूर्वक जाति, कुल, वंश, सर्व पूछिवा लागउ । तिवारइ कुब्ज कहइ, 'जन्मभूमि कोशलानगरी । अनइ हं ते नल-राजानउ सूआर । ते नलनी संगति-लगइ सर्व कला जाण । वली सूर्य पाक रसवती नल जाणतउ कि (1) हं जाण । हिव ते नलराजाई द्यनक्रीडा करतां राजरिद्धि सर्व हारिउँ, अनइ पापीइ कूवरि जीतउं। पछइ तिःण कूवरि नल दमयंती बाहरि काढयां । ते सांप्रत न जाणीइ किहां गयां ?' ए वात साभली दधिपर्ण-राजा नलना गुण स्मरी स्मरी, नलनां प्रेतकार्य 'करी, असमाधि करिवा लागउ ।
हिव अन्यदा दधिपर्ण राजा ते सूआरनइ प्रार्थना करइ, 'अहो ! एक वार सूर्यपाक-रसवती नीपाइ ।' तिवारइ सूआरि सूर्यपाक-रसवती करी, राजा सपरिवारि जिमाडिउ । पछइ राजा संतुष्ट वर्तमान हूंतउ ते कूबडा नलनई पांच सई ग्राम अनइ एक लाख टंका एतलु देवा लागउ । पणि ते नल ग्राम न लिइ । पछइ खरच-भणी एक लाख द्रव्य लीधउं । वली राजाई कहिउं, 'जि कांई ताहरइ जोईइ, ते कह ।' तिवारइ कुब्ज कहइ, 'तुम्हे राज पालतां उछउं कांई नथी । पणि देस-माहि सघलइ मदिरा, द्यूतक्रीडा, आहेडउ - ए सहू निवारउ ।' तिवारई राजाई तह त्ति' करी कुब्जनउं वचन मानिउं । इम कुब्ज-रूपि नल सुखिइं रहइ छ ।
एहवइ अनेरइ दिवसि तलावनइ कांठइ ते कूबडउ जई बइठउ । तिसिइ कोई एक देसांतरी ब्राह्मण आवी कुज-कन्हइ बइठउ। तिहां कूबडनडे सर्वांग रूप देखी गोष्टि करतां अंतरालि तीणइ बि लोक पढ्या । यतः
अनार्याणामलज्जानां दुर्बुद्धीनां हतात्मनां । रेखां मन्ये नलस्यैव यः सुप्तामत्यजत् प्रियां ॥१॥ विश्रब्धां वल्लभां स्निग्धां सुप्तामेकाकिनी वने ।
त्यक्तुकामोऽपि जातः किं तत्रैव हि न भस्मसात् ।।२।। गीत-माहि एहवउं सांभली कुब्ज कहइ, 'तई भलउं गीत गायउं । पणि कहि, तूं कउण ? किहां-हंउ आविउ ? अनइ किहां ए नलनी वात सांमली ?' इम पूछिउ हूंतउ कहइ, 'माहरउ नाम कुसल उ, अनइ कुंडिनपुर-हूंतउ आविउ । तिहां मई ए नलनी कथा सांभली ।' तिवारइ विश्वर-नेत्र हंतउ कुब्ज वली पूछिवा लागउ, 'अहो ! जिम तई वात लाभली छइ, तिम मुझ
आगलि वात सर्व कहि ।' तु ब्राह्मण कह इ, 'सांभलि, जिवारई नल दवदंती सूती मूकीनइ गयउ. तिवारइ दवदंतीइ स उणउं दीठउं, 'जाणइ -हूं आंबइ चडी छउँ, आंबा खावानी वांछाइ । जेतलई हाथ घातउं तेतलइ हाथीइ आवी आंबउ उन्मूलिउ, अनइ हूं भुई पडी। इम सउणउं लही जेतलई प्रभाति जागी, तेतलई · भर्तार आगलि न देखइ । पछइ चउ-पखेर जोवा लागी. तुही न देखइ। तिवारई चींतवइ, 'ए विधात्रा अजी मुझनइ सिउँ करिसिइ, जे एहवी अवस भारनइ न देखउं ? अथवा मुख धोवा-भणी तलावि गयउ हसिई । अथवा सौभाग्यनिधि पति कीणी विद्याधरीइ अपहरिउ घटइ । अथवा हासा-लाइ वन-माहि लुकी रहिउ घटइ ।। इस चीतवती दवदंती वृक्ष-वृक्ष-प्रतिइं जोइवा लागी । पणि किहां नलनई न देखइ । तिवारड विलाप करती कहइ, 'ते वृक्ष, ते पर्वत, ते भूमि दीसइ, पणि एक नल न दीसइ ।' पछइ सउणानउ अर्थ चीतारिवा लागी, 'जे सहकार दीठउ, ते नल । जे पुषफल, ते राज । अनइ जे
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