Book Title: Silopadesamala Balavbodh
Author(s): Merusundar Gani, H C Bhayani, R M Shah, Gitaben
Publisher: L D Indology Ahmedabad
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मेरु सुन्दरगणि-विरचित
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अवधि बलि धर्माचार्य गुरुनउ आचार साचवतउ ए मदनरेख! महासतीनइ प्रणमइ । ते ए आचार - इहां दोष कांई नही । जिणि कारणि अणगार अथवा जि को जेहनइ उपदेश दिइ, ते तेन गुरु । इहां संदेह कांई नही । ईणी मदनरेखाइ प्रांतकालि भर्तारनइ सम्यक्व देतां कउण कउण वस्तु न दोघी १ अपि तु सर्व दीघउ ।' ए वात सांभली विद्याघर देवतानां खमावइ । तेतलइ देवता मदनरेखानइ कह ' कहि, सिउं करउं तुझनई ?' तिसिई मदनरेखा कहर, 'मुझनइ मिथिलानगरी लेई मूकि, जिहां ते लघु पुत्र छइ ।' नेतलइ देवताइ क्षण एक माहि तिहां 'लीधी । तिहां नमि अनइ मल्लिनाथ प्रणम्या महा-प्रासादि । पछइ साध्वी कन्हई जई धर्म सांभलिवा लागी । एहवइ देवताए कहिउं, 'आवउ, जिम पुत्र देखाउं ।' तिवारइ मदनरेखा कहर, 'माहरs पुत्रि सिउँ कीजइ १ केता पुत्र आगइ हुआ छ३ । हिवह मुझनइ चारित्र शरण ।' पछइ देवता महासतीनइ प्रणाम करी आपण ठामि पहुत उ । मदनरेखाइ दीक्षा लीधी । हिवर श्री पद्मरथराजाइ ते पुत्र घरि पालतां वइरी सर्व नमाव्या, तेह-भणी 'नमि' ए नाम दीघउं बालकनइ । क्रमिदं बालक वाघतउ योवनावस्थाइं आविउ । तिसिहं पिताईं एक सउ आठ कन्या परिणावो | महांत योग्य जाणी पिताई आपणउं राज दीघउं । पछइ आपणपे पद्मरथराजाई दीक्षा लोधी । क्रमिइ मोक्ष (?) पहुतु । हिवइ मणिरथ युगबाहु बांधवनइ हणी घरे आविउ, रात्रि * सर्पइ खाघउ मरण पामी चउथी नरग-पृथ्वीइ गयउ । पछइ प्रधान मिली युगबाहुनु पुत्र चंद्रयशकुमार, तेहनइ राज दीघउ । ते राज आपणउं सुखिइ पालिवा लागउ । इसिहं नमिराजानउ पट्टहस्ती श्वेत, भद्रजातीय, आलानस्तंभ उन्मूली, वंध्याचल स्मरतउ नीकलिउ । तेतलइ मार्गि जातां चंद्रयशराजाना जण, ती झालिउ । पछइ ए वात चरना मुख इतु नमिराजाइ जाणी, दूत मोकली हाथीउ मंगाविउ । तिवारइ दूत - प्रति चंद्रयश-राजाइ कहिउ', 'नमिराजा नीतिनउ जाण नहीं | कांई परहस्तगत वस्तु फोकट किम लाभइ ? ए वस्तु जेहनइ हाथि चडी, ते तेह जिनी ।' इम कही दूत अवगणी विसर्जिउ । तिणि दूति आवी नमिराजानइ कहिउं, 'तिहां तु तुझनई को न मानइ ।' पछइ नमि प्रयाण - भंभा देवरावी, सर्व - सैन्य मेली नीकलिउ । तिसिईं वली दूत एक मोकली कहाविउं जु, 'हाथीउ आपि, नहीतरि हूं आवउं छउं ।'
इस चंद्रयश राजा पणि चतुरंग दल मेली साम्हउ नीकलिवा लागउ । तेतलड् अपशकुन हुआ । प्रधाने वारी राखिउ । पछइ नगर जि माहि कटक मेली रहिउ । तिसिह नमि आवी गढ वीटिउ । सदा युद्ध हुइ, ढीकुली-यंत्र वहई, घणा सुभट रणि रहई, वाचित्र वाज, कायर भाजई, सुभट गाजई । तिसिह महासतीई ए वात सांभली, मन-माहि चींतवर, 'ए बेहू सगा भाई छ, पणि घणा लोकनउ क्षय करिसिईं ।' एह-भणी आर्या पूछी, आपणठ वृत्तांत कही, नमिराजा - कन्हइ महासती आवी । नमिदं पणि विनय प्रतिपत्ति कीधी, कांइ जे स्नेह 'अहो राजेन्द्र ! लक्ष्मी समुद्रना कल्लोलनी संसार देखी एवडुं जे झूझ करउ छउ, ते वडा भाई साथिई झूझ करवा युगतउं नही ।' महासति ! कउण वडउ बांधव ?' महानमिराजा वलतडं कहइ, 'किम ?" तिवारह
ते जाइ नही । पछ३ महासती कहिवा लागी, परिहं चाल छइ । तु नमिराजन ! ए असार नरग - जि- नइ हेति । अनइ वली विशेष सांभलि । तिवारई नमि आश्रर्यमइ वचन सांभली कहह, 'हे सती कहइ, 'एह जि चंद्रयश राजा ताहरउ बांधव ।'
७८
१.
४.
K. पहुचाडी । २. K. L. पवत्तिणि-कन्हइ । ३. Pu. L. देवरावउं । P. L. सर्पना डंस लगइ मरण । ५. K सर्वत्र 'चंद्रयशा' नाम आपे छे ।
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