Book Title: Silopadesamala Balavbodh
Author(s): Merusundar Gani, H C Bhayani, R M Shah, Gitaben
Publisher: L D Indology Ahmedabad
View full book text
________________
९२
मेरुसुन्दरगणि-विरचित
आवी जाणी, सामुहु आव्यउ । पछइ नर्मदासुन्दरी मातापितानई कंठि लागी तार-स्वरिई रुदन करिवा लागी । तिसई ऋषभसेनादिक कहिवा लागा, "भलू हुउँ जे, अम्हे बेटी जीवती दीठी । तु आज पुत्रीनइ नवउ जन्म हउ ।' एह-भणी महा महोत्सव करिवा लागा । जैन-प्रासादि महापूजा-पूर्वक साधर्मिक वात्सल्यादिक कोधां । केतलाएक दिन जिनदास तिहां रही वीरदासनइ पूछी भरूअच्छि गयउ ।
इसिइ एकदा आर्य सुहस्तिसूरि दश-पूर्व-धर विहार करतां आव्या नर्मदापुरि । तिवारई ननंदासुंदरी माबाप-पीतरीआ-सहित आचार्य-समोपि आवी, प्रणाम करी आगलि बइठी। तेतलइ श्री-मुहस्तिसूर धर्मलाभ कही धर्मोपदेश दीघउ । तिवार-पछो देशनानइ अंति वीरदास गुरुनइ प्रणमीनइ पूछिया लागउ, 'स्वामिन ! नर्मदा सुंदरीइं भवांतरि कउण कम ऊपाजिउं, जे निर्दोष इ सुसील हुती इ एवंडां कष्ट पाम्यां ?' तिवारई भगवंत श्रुतनउ उपयोग देई पूर्वभव कहिवा लागा, 'ईगइ पृथ्वोपीठि विध्यगिरि । ते-माहि-थिकी नर्मदा नदी नीकली छह । तेहनी अधिष्ठायिका मिथ्वास्विनी देवता एक छ । तीणई देवताईएकदा महात्मा एक धर्मरुचि प्रतिमाइ रहिउ देखी घगा असर्ग कीधा । तु-ही धर्मरुचि महात्मा ध्यान-इंतु न चूकउ । तिसिई देवताई महात्मानो क्षमा देखी प्रतिबूझी हुंती सम्यक्त्ववंति हुई । हिव ते मरी तुम्हारी पुत्री नर्मदा हुई, अनइ पूर्विला अभ्यास-लगी नर्मदा-स्नाननउ डोहलउ ऊपनउ । वली जे महात्मानइ उपसर्ग कीघउ हुँतउ तेह-भणी दुक्खिणी हुई।
ए वात साभलो नर्मदाई दीक्षा लीधी। तिसिहं जातीस्मरण उपनउं । पछह चारित्र पालतां वली अवधिशान ऊपनउं । पछइ पवत्तिणि-पद पामी कूववंदपुरि आवी । पणि तप लगी कालक्रमई कृशदेह हुई छइ । तिहां कुणिहि उलखि नही। पछइ नमयासुंदरी पवत्तिणी महासतीने वृदे परिवरी ऋषिदत्तानइ घरि आवी । धर्मलाभ कहिउ । तिसिइ ऋषिदत्ताई आश्रय दीघउ । तिहां महासती रही। हिवई धर्मनउ उपदेस महासती सदा दिइ अनइ महेसरदत्त. ऋषिदत्ता उपदेश सांभलई, पणि एकू ते महासतीनई ओलखइ नही । इम अन्यदा संवेगरंग ऊपाइवा-भणी महेसरदत्तनई स्वर-लक्षण भणाविउं । तिसिइं स्वर-लक्षण भणि इंतह ते नर्मदासुंदरो स्त्री चित्ति आवी । पछइ पश्चात्ताप करिवा लागउ, 'धिग् धिकार मुसनइ, जे मई एहनी इ सती वन-माहि सूती मूकी । तु हूं दैवइं हणिउ । जे स्वरलक्षण-कगी रात्रिइं गीत गातउ पुरुष तेहना अहिनाण कहियां, पणि महारइ मनि विकल्प ऊपनु । तेह-लगइ मई निरपराध ते स्त्री जन-माहि मंकी। तु ते नमयाना कु' ले होसिई?' इम आपणी शोचा करतउ देखी व्या-लगाइ महासती कहइ, 'ते ई नमयासुंदरी, जे तुझ आगलि बइठी छ ।' तिवारई महेसरदत्त चीतवइ, 'ए किसिउं आश्वर्य ? नोउ, सघले कर्म जि सबल, जिम नचावइ तिम नावीह । इहां किहन उ दोन नहीं ।' पछइ ऊठी महासतीनइ पगे लागिउ । तिहां खमावी करी औ रंग-पूरित हतउ श्री-सुइस्तिसूरि आचार्य-समीपि जई व्रत लीधउं । अनइ ऋषिदत्ताई पंणि चास्त्रि लीध। पछइ बेहूं तर तपी, चारित्र पाली, स्वर्गनइ भाजन इया । अनइ नमयासुंदरी पणि प्रांत-समय जाणो, संलेखनापूर्वक अणसण पाली, देवलोकि पहुती। पछइ वली महाविदेहि क्षेत्रि पनी, दीक्षा लेई, मोक्ष पहुचिसइ।
__ इति नमया-सुंदरी कथा ॥२७॥
१. K. प्रस्ताव
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org
Page Navigation
1 ... 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234