Book Title: Silopadesamala Balavbodh
Author(s): Merusundar Gani, H C Bhayani, R M Shah, Gitaben
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 135
________________ मेरुसुन्दरगणि-विरचित तु अहो दूत ! ताहरइ स्वामीइं मुझनइ भलउँ कहाविउं । पणि जे कुलोन हुई ते आपणी मर्यादा न मूकई । तु हिव हूं पणि वलतू कहावउं छउं जउ - 'तू आपणी भार्या शिवादेवी मोकलइ" तिसिइ दूत कहिवा लागउ जउ, "तू माहरा स्वामीनां वचन लोपेसि तु जाणे तुझनइ अनर्थ ऊपजिसिइ। ते महेन्द्रराजानउं कटक तई किम सहवरानिई ? तेह-भणी ऊतावलउ म बोलि।' इसिई चंद्रराजा रोषारुण-लोचन हतउ कहिवा लागउ, 'अरे दूत! ताहरा स्वामीन जाणपणउ जाणिउं । ते भलउ कुलाचार पालइ छइ, जे पारकी स्त्रीनी वांछा करइ छइ ।' तिसिई वलो दत कह इ. 'अहो राजेन्द्र ! माहरउ वचन सांभलि। कांइ बुद्धिवंत पुरुषे जीणइ कीणह आयई करो आपण आत्मा राखिनउ । किसिउं तुझनइ नीतिशास्त्र वीसरी गयउं ? यतः भृत्यैधनेन ताभ्यां तु रक्षणीया हि वल्लभा । दास-द्रव्य कलत्रैस्तु रक्षणीयं स्व-जीवितं ।' इत्यादि वचन दूत बोलतउ राजाई गलइ झलावी सभा-बाहरि कढाविउ । जिम कृपण इ भीखारी बाहरि काढीइ तिम काढिउ । तिणइ दतइ जई महेन्द्रसिंहनइ कहिउं । तेतलइ महेन्द्रसिंह राजा समुद्रनी वेलि जिम कटक लेई आविवा लागउ । तिलिई ए वात सांभली चन्द्रराजा पणि सामहउँ नीकलिउ । पछइ तिहां बिहु कटकनइ झूझ होतां चन्द्रराजान कटक । तिसिइ महेन्द्रसिंह राहुनी परिई चंद्रराजा जीवतउ बांधी प्रधाननइ आपिउ। तिवारइ हरिणनी परिई चंदराजानउं कटक नासतां मृगलीनी परिई रतिसुंदरी झाली । पछइ रतिसुंदरीन लाभिइ संतुष्ट हुंतइ महेन्द्रसिंहिई चंद्रराजा मूंकिउ । पछइ महेन्द्रसिह राजा आपणइ नैगरि पाछउ आविउ । तिसिइ कामनउ वाहिउ रतिसुंदरोनइ कहिवा लागउ, 'हे सुभगि ! जे दिवस-लगइ मई तूं इतना मुख इतु सांभली ते दिवस-लगइ हूं आनंदपूरित हीयइ मनोरथ करतउ रहिउ । तु हे मंद्रि ! एतलउ आरंभ मई ताहरई काजिई की। तु हिवइ माहरलं वचन मानी राज्यनी स्वामिनी था।' तिवारइ रतिसुंदरी चीतविवा लागी, "ए माहरा रूप नई धिक्कार हु जे भार एवडी आपदा-माहि पाडिउ। अनइ वली ए कामी बलत्कारि शीलनउँ भग करिसिह । तु हिवइ मई किम कीजिसइ ! किम शोल राखोसिद? अथवा काल-विलंब करउं । ते करतां सर्व बोल भला हुसिई । इहां शांत मि वचन बोलि मेलि आवसिइ। इम चौतवी वल कहिवा लागी 'अहो राजेन्द्र ! ए बोलनी थोडी वात छइ १ ताहरउ बोल किम लोपाइ ? पणि कांई एक मांग ते आपि ।' राजा कहा, 'ए सिउँ कहिउं ? जु कहि तु आपण उ जीव पणि आपलं ।' तिवारई रतिसंदरी कहइ, 'ए बातन सिउ कहिवउं ? पणि च्यारि मास शीलभंग म करेसि ।' तिसिइ राजा कडिवा लागउ, 'ए तु वज्रपात-पाहिई अधिक बोल मागिउ। तु हिवइ मइ ताहरउ च्यारि मासनउ बोल मानिउ । पछइ तु माहरइ जि हाथि वात छइ ।' इम कही राजा गयउ । ___ पछा रतिसुंदरी आंबिलनइ उपवासे करी आपणउं डोल शोषती, स्नान-विलेपन सर्व वा, मउड मउइइ कृश देह हुई । मांस-लोही सर्व सूकिवा लागां । एहवइ राजाई ते रतिसुंदरो दीठी। चिंतातुर इंतु पूछिवा लागउ, 'हे सुभगि ! तुझनइ कांई रोग छइ ? अथवा कांई दुःख छह जे तुझनइ एहवी अवस्था आवी ?' तिवारई रतिसुंदरी कहइ. 'हे राजन् ! वैराग्य-लगइ म पडवर्ड व्रत कोबइ छइ, तिणिइ करी माही काया विच्छाप दीमइ छ।' जिम फागुणमासि विच्छाय वन दोसई, तिम ते विच्छाय दोसिवा लागो । वली कहइ, 'ए व्रत तां मह १K. साहमु । २. K स्थानकि गयउ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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