Book Title: Silopadesamala Balavbodh
Author(s): Merusundar Gani, H C Bhayani, R M Shah, Gitaben
Publisher: L D Indology Ahmedabad

View full book text
Previous | Next

Page 123
________________ ८२ मेरुसुन्दरगणि-विरचित काई रोग छइ ? अथवा काइ वैद्य न हुंतउ ? अथवा ऊषध माहरइ घरि लाभतां न हुंतां ? अथवा ए धुरि-लगइ किसिउ दूबली जि छइ ?' इम कहिइ हृतई अधिकारी छइ तीणइ प्रणाम करी भरतनइ कहिउं, 'स्वामी! जे दिवस-लगइ तुम्हे दिग्विजय-भणी चाल्या, ते दिवस-लगइ स्त्री-रत्नपणानी अणवांछाइं साठि सहस्र वर्ष-सीम कर्मना क्षय भगी आंबिल कीधां ।' हिव ए वात सांभली भरत पश्चात्ताप करतउ सुंदरी-समोपि आवी पूछा, 'कहि-न, तूं दीक्षा लेणहारि छइ ?' तिवारई सुंदरीइ कहिउं, 'हा।' तिसिई भरत कहिवा लागउ, 'मई जे तुझनइ चारित्र लेतां विघ्न कीधउं ते खमि । काई धन्य ते, जे चारित्र पालइ । अनइ एक हुँ 'अभागीउ छउं, जे विषयनउ वाहिउ चारित्र न लिउं । तु तु चालि, जिम परमेश्वर-समीपि जई दीक्षा तुझनइ देवरावउं।' इसिइ त्रैलोक्यनउ नायक विहार करतउ अष्टापदि आवी समोसरिउ । देवतानी कोडि तिहां मिली। तेतलइ भरतनइ कुणहि एकणि आवी वधामणी दीधी ज, 'स्वामी अष्टापदि समोसर्या ।' पछइ तेहनइ भरति साढी बार कोडि सुवर्णना आपी वधामणा-भणी । तिसिई सुंदरी कहइ, 'हे भरत ! माहरा मनोरथ फलिया, जे स्वामी आव्या । हिवइ हूँ दीक्षा लिउँ ।' तिसिई भरत सपरिवार, सनागरिक स्वामीनइ वांदिवा चालिउ। तिहां स्वामीई धर्मोपदेश दीघउ । पछइ भरति संदरीनइ दीक्षा-महोत्सव कराविउ । तिवारई सुंदरी साथिई घणी स्त्रीए दीक्षा लीधी। सुंदरी महा हर्ष धरती कहइ, 'स्वामी ! धन्य ते, जे ताहरउ मार्ग आदरइ ।' इम कहती सुंदरी महासती-माहि आवी बइठी। अनइ भरत वांदी अयोध्याई पहुतउ । हिवइ सुंदरी निर्मल चारित्र पाली, घातिया कर्मनउ क्षय करी, मोक्षि पहुती । इम संक्षेपिई सुंदरीनउ दृष्टांत कहिउं ॥२५॥ हिवइ अंजणासुंदरीनउ दृष्टांत कहीइ [२६. अंजनासुदरी-दृष्टांत ] ईणइ जंबूद्वीपि वैताढ्य-पर्वति प्रहलादनपुर नगर । तिहां प्रहलादन नामई राजा, पद्मावती राणी । तेहनउ पुत्र पवनंजय एहवइ नामिई छइ । हिवइ तेहनइ ऋषभदत्त एहवइ नामि मित्र । ते साथिई क्रीडा-विनोद करतां मित्र-सहित सुखिइं काल गमाडइ । ___ इसिई तीणइ जि वैताब्य-पर्वति अंजनपुर नगर । तिहां अंजनकेतु राजा, अंजनावती राणी। तेहनी पत्री अंजनासुन्दरी पणि महा रूपवती, गुणवती, भणती-गुणती सर्व कलानइ पारि पहती ।। वात सघले राजानई देशि प्रसरी जु-'आजनइ कालि एडवर्ड रूप-लावण्य अनेथि नथी।' पछइ सघले राजाए आपणउ आपणउ प्रधान अनइ आपणां आपणां रूपनां पट मोकल्यां । हिवह राजा सर्व पट लोड, पणि एकु-इ रुचइ नही । ईसिई पवनंजयकुमारनउ पट आणि उ । ते देखी अनेरा सर्व हमारना पट नांखी, ते रूप जोवा लागउ । राजा पछइ अंजनासुंदरी अनइ पवनंजयना रूपनड रीवाद देखो प्रधान छिर, 'जोइन, सरी वां रूप छइं ।' तिवारइं प्रधान कहिवा लागउ. 'स्वामी ! रूप जोतां तु देवदत्त-कुमारनउ रूप अधिकउं छइ । पणि केवलीइ कहिउं छह जउ. र वरसि मुक्तिगामी होसिई। एह-भणी ते अल्प-आयु जाणी ए संबंध रहउ । पवनंजयनउ संबंध करउ ।' १. K. प्रमादी छ । २. K. L. Pu. रायतने पसरी । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234