Book Title: Silopadesamala Balavbodh
Author(s): Merusundar Gani, H C Bhayani, R M Shah, Gitaben
Publisher: L D Indology Ahmedabad
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८४
मेरुसुन्दरगणि-विरचित अंजनासुंदरी उत्तम कुलवंतो, शीलवंती, परम भक्तिई करो देवतानी परिई भरिनइ आराधइ, अनइ श्री-वीतरागनउ धर्म एकचित्ति पालइ छइ ।
इसिइ रावण लंकाधिपति प्रतिवासुदेव-साथि युद्ध करवा-भणी कटक मेलणहार हूंतई झूझनइ सखायत-भणी प्रहलादन-राजानइ तेडउं मोकलिउं । तिसिई प्रहलादन राजा रणनइ कउतिगीयाल हूंतउ जयढक्का देवराविवा लागउ । तेतलई कुमार ए वात सांभली पितानइ कहइ, 'मइ पुत्र 'हूंतइ जे तुम्हे मूझिवा जाउ, ते शोभइ नहीं ।' इम कही कुमारि बीडउ झालिउ । पितानइ प्रणमी, मातानइ प्रणाम करिवा-भणि आविउ । एहवइ अंजनासुंदरी सासूनइ घरि आवी ऊम्मणदूमणी थांभइ उठींगी ऊभी रही । तिसिइ कुमार माताने पगे लागउ । माताई आसीस दीधी, शिक्षा देई पुत्र विसर्जिउ । हिवई अंजनासुदरी थांभइ वलगी पूतलीनी रीतिइ रही, पणि पवनजयइ लगारइ दृष्टि न दीधी । पछइ अंजनासुंदरी शून्य चित्तइ आंखिइं अनुपात करती घरि आवी ।
हिवइ कुमार चाली, पहिलइ प्रयाणइ मानस-सरोवरनइ कांठइ ऊतरिउ । तिहां रात्रिई पर्यति पंखी आनंद करतां देखी मित्र-कन्हइ कुमार पूछद्द, 'ए पंखीया स्या-भणी पुकारई छई ?' तिवारह मित्र कहा, 'देव | ए चक्रवाक-चक्रवाकी, रात्रिनउ वियोग तिणि करी विलाप करइं. छई।' इसिइ अंजनासुंदरीनउं अंतराय-कर्म क्षयि गवउं । एहवइ पवनंजय चौतवइ, 'जोउ, जे पाथरा पंखीया, तेहनइ एवडां विरह छई । अनइ मई तां अंजनासुदरी बार वरस-माहि बोलावी नथी ! पाणिग्रहण कीधा पछी दृष्टि-मात्रई जोई नथी । तु तेहनउं कउण हाल ? तिवारइ मित्र बलतुं कहइ, 'एतला दिननउ विरह तइ तां मनि नाणिउ ।' तिवारइ पवनंजय कहइ, 'मित्र ! हं पाछउ जई मिली आविसु । हिव मइ विरह सहिवातउ नथी ।' पछइ पवनंजय रात्रिनइ समइ नीकली पाछउ घरि आविउ । बारणइ ऊभउ रही माहि चरित्र जोवा लागउ । देखइ तु अंजना असमाधि करइ छइ । तेतलइ पवनंजयि बार ऊघडाविउ, तिहां अंजनासुदरी आदरी । तहोई अंजनासुदरी ऋतुस्नाता हूंती । तिणि अंजनाई कहिउं, 'स्वामी ! कदाचित संतानप्राप्ति हुसिई, तु सासू-सुसरा विकल्प धरिसिइं ।' पवनंजयि आपणी मुद्रिका नामांकित दीधी । आप वली कटक-माहि गयउ।
हिवइ अंजनासुदरी चीतवइ, 'तां अंतराय-कर्म क्षयि गयउ, जे भरिनउ बहुमान लाउं ।' इसिइं त्रीजइ मासि गर्भ प्रगट थयउ । सासू मनि चीतवइ, 'वहू तां असती हुई ।' ए वात सुसरइ पणि जाणी । पछइ गर्भ जिम जिम वाधइ तिम तिम अंजनानइ मनि हर्ष ऊपजइ । अनइ कलंक पणि लोक-माहि वाधिवा लागउ । इम गर्भ वाधतइ सासू-सुसरे पूछिउं, 'ए सिउं ?' तिवारइ ते मुद्रिकारत्न देखाडि, तुहइ न मानइ । तिसिइ मास पांचनउ गर्भ थयउ । पर सुसरउ मनि चीतवइ, 'भर्तारि तां कदापि स्पर्शमात्र नथी कोधउ, जे एहनह गर्भ हूउ । तु निश्चई ए दुश्वारिणी अनइ असती ।' इम चीतवी घर-बाहरि काढी ।
पछइ बापना घर-भणो चाली । एकाकिनी वाटइ चालती चीतवइ, 'वली तां ए कर्म उदय आविडं । तउ रे जीव ! सहि ।' इम एक दासी सहित अंजनासुदरो मार्गि चालती बली चीतवह, 'माता-पिताना घरि जातां शोभइ नही ।' तेह-भणी वन-माहि आवी । आपणउं
१. K. छतह तुम्हे ।
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