________________ तथ्य और सत्य को प्राप्त कर लेने के बाद उसे शब्दों के रूप में प्रस्तुत करने की अपूर्व क्षमता उनमें थी। यही कारण है कि हजारों बार उनकी वाणी को पढ़ने के बाद भी उसमें चिन्तन के नए-नए स्वरूप निरन्तर देखने को मिलते हैं। आज के विकासवादी विज्ञान का मूल आधार प्राचीन महापुरुषों के चिन्तन का ही फल है। जिसे आज का विज्ञान प्रायोगिक रूप में प्रतिफलित करता है। विद्वानों ने जिस अपूर्व श्रम साधना के द्वारा ज्ञानाराधना की प्रवृत्ति को जितनी गहराई तक अपने मानस पटल पर उतार कर उसे चिन्तन की गहराई तक ले गए और उसके अभूतपूर्व प्राप्त अनुभव को शब्दों के द्वारा प्रस्तुत करने की जो क्षमता दिखाई वह अपने आप में मौलिक और अमरत्व रूप रही है। उससे व्यक्ति समाज और राष्ट्र को आगे बढ़ने एवं जीवन दिशा बदलने तथा चिन्तन के आधार पर स्वरूप प्राप्ति में अग्रसर होने का जो सर्वांगीण रहस्य सामने आया उसका हेतु विद्वान् ही रहे हैं। अतः सार्वजनिक रूप में ऐसे चिन्तनशील विद्वानों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने की जो भी प्रवृत्तियाँ व्यक्ति, संस्था, समाज, राज्य अथवा राष्ट्र द्वारा अपनाई गईं वे सम्मान की श्रेणी में समाहार हुईं। विद्वानों की इस अभिनन्दन परम्परा को देखकर बीसवीं शताब्दी में कुछ ऐसे व्यक्तियों को भी इस परम्परा का साकार रूप बनाया, जिन्होंने समाज-राष्ट्र या अन्य संस्था आदि की सेवा कर अपने जीवन के बहुभाग क्षणों को बिताया। ऐसा अभिनन्दन जहाँ दूसरों को प्रेरणा देने का प्रतीक बन सकता है तो अभिनंदित के प्रति उसके कृतित्व की कृतज्ञता का रूप माना जा सकता है। किन्तु विद्वान् का जो अभिनन्दन है वह किसी की प्रेरणा के लिए अथवा उसके कृतित्व की कृतज्ञता ज्ञापित करने के लिए नहीं होता है बल्कि उसकी साधना की पूजा के प्रतीक के रूप में उसे समाहित किया जाता है। नीतिकार ने एक जगह इस हेतु से लिखा है - विद्वानेव हि जानाति विद्वज्जन-परिश्रमम्। न हि बन्ध्या विजानाति गुर्वी प्रसववेदनाम्।। अर्थात् विद्वान् के परिश्रम को विद्वान् ही जान सकता है जिस प्रकार प्रसव की वेदना को प्रसव करने वाली स्त्री अनुभव कर सकती है, वन्ध्या महिला नहीं। ऐसे विद्वानों के अभिनन्दन की इस गौरव परम्परा में डॉ. सुदर्शन लाल जैन का जो सार्वजनिक रूप से अभिनन्दन ग्रन्थ के द्वारा सम्मान किया जा रहा है वह इनके ज्ञानाराधन पूर्वक साधक जीवन से प्राप्त प्रेरणा प्रकाशपुञ्जों का वन्दन है। उन्होंने चिन्तन की गहराइयों में गोते लगाकर उससे प्राप्त अनुभूत मणियों की उस दिव्यता की यह पूजा है जिसके आलोक से वर्तमान दिगम्बर जैन समाज को जहाँ दिशाबोधता का स्वरूप तो दिखा ही साथ ही जिनवाणी के विकृत स्वरूप में साम्प्रदायिकता की अथवा पंथवाद की दुर्गन्ध प्रतिभाषित हुई। परिणामत: व्यक्ति से लेकर समाज ने अपनी असलियत चेतना की अंगड़ाई ली और तथ्य के सत्य को जानने का उपक्रम किया। ऐसे मानवीय गुणों से अलंकृत महामानव की परिगणना में समाहारित डॉ. सुदर्शन लाल जी का यह अभिनन्दन ग्रन्थ युगों युगों तक हमें अपने कर्त्तव्य से जहाँ सजग तो करेगा ही पथ से पथभ्रष्ट होने से भी बचाएगा। प्रो. डॉ. सुदर्शनलाल जी ने तुलनात्मक दृष्टि से अन्य दार्शनिक ग्रन्थों से जैनागम की जो उत्कर्षता, श्रेष्ठता तथा वैज्ञानिकता दर्शाई है वह प्रभावक एवं बेजोड़ है। हिन्दी साहित्य के साथ ही आप संस्कृत-प्राकृत-पालि और अंग्रेजी भाषा के निष्णात विद्वान् तो हैं ही व्याकरण, काव्य, साहित्य, वेद, भाषाविज्ञान के अपरिमेय ज्ञाता भी हैं। साथ ही बौद्ध, वेदांत, सांख्य तथा मीमांसा आदि भारतीय दर्शनों के विलक्षण विद्वान् तथा पाश्चात्य दर्शनों के ज्ञाता उच्चकोटि के लेखक सफल प्रबुद्ध साहित्यकार हैं। आपके इस संदर्भ में सैकड़ों शोधालेख देश की अनेक शोधपरक ख्यातिप्राप्त पत्रिकाओं तथा अभिनन्दन ग्रन्थों में प्रकाशित हैं। सर्वप्रथम उच्चशिक्षा प्राप्त कर आप हिन्दू विश्वविद्यालय वाराणसी में व्याख्याता के पद पर नियुक्त हुए। अपनी विलक्षण ज्ञान प्रतिभा एवं प्रशासनिक उत्कृष्ट क्षमता के कारण रीडर बने पश्चात् प्रोफेसर के गौरवशाली पद पर कार्य करते हुए अनेक छात्रों को पी-एच.डी. की उपाधि प्रदान कराने में अपनी गौरव ज्ञान प्रतिभा का परिचय दिया। आपकी प्रखर विद्वत्ता, उत्कृष्ट प्रशासनिक क्षमता को प्रस्तुत करने के कारण भारत के महामहिम राष्ट्रपति द्वारा आपको राष्ट्रीय स्तर पर पुरस्कृत कर सम्मानित किया गया। सेवा निवृत्ति के बाद मध्यप्रदेश की गौरव राजधानी भोपाल में आपने अपना स्थाई निवास बनाया। भोपाल में रहकर यहाँ की समाज को भी अपनी विलक्षण प्रतिभा से प्रभावित कर रहे हैं। भोपाल प्रवास के समय जब मैंने 10/15 साथी श्रेष्ठ विद्वानों के बीच आदरणीय डॉ. सुदर्शनलाल जी के संदर्भ