Book Title: Siddha Saraswat
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Abhinandan Granth Prakashan Samiti

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Page 9
________________ सम्पादकीय सुप्रसिद्ध विद्वान् मनीषी प्रो. डॉ. सुदर्शनलाल जी जैन का अभिनन्दन ग्रन्थ देश के सहृदयी विद्वानों एवं पूज्य सन्तों के करकमलों में समर्पित करते हुए अति प्रसन्नता है। विद्वानों की सेवाओं के इतिहास को लिपिबद्ध करने के लिए अभिनन्दन ग्रन्थ का प्रकाशन निश्चित रूप से स्वागत योग्य है। विद्वानों का जीवन उनका स्वयं का श्रम एवं समाज का जीवन अधिक होता है। उनके विचारों का उनकी लेखनी में समाज का दर्शन मिलता है। तेरहवीं शताब्दी के बाद भट्टारकों का काल आया जब देश के विभिन्न स्थानों में भट्टारकों की गद्दियां स्थापित होने लगी थीं और भट्टारकगण अपने अपने प्रदेश के सर्वोपरि धार्मिक अधिकारी माने जाने लगे थे। उस समय के भट्टारक एक ओर पूजा विधान एवं प्रतिष्ठा समारोहों के लिए समाज में रुचि जाग्रत करने लगे तो दूसरी ओर उन्होंने साहित्य प्रचार की ओर ध्यान दिया। भट्टारकों का यह युग 18वीं शताब्दी तक चलता रहा। इस युग में सबसे अधिक पूजा स्तोत्र साहित्य लिखा गया परिणामतः समाज का अधिकांश वर्ग क्रियाकाण्ड में व्यस्त हो गया। इसी समय भट्टारकों के विरोध में एक और विद्वत् परम्परा का उदय हुआ जो आरम्भ में अध्यात्मी पंडित कहे जाते रहे फिर तेरह पंथी पंडित कहे जाने लगे। महान् विद्वान् पं. टोडरमल जी इस परम्परा के प्रमुख पंडित थे। विगत 80/90 वर्षों से समाज का पंडित वर्ग सुधारक एवं पुरातन विचारधाओं का पोषक इन दो भागों में बटा रहा। उत्तर भारत में भट्टारक परम्परा की समाप्ति के बाद साधु संस्था का उदय हुआ। चारित्रचक्रवर्ति आचार्य श्री शान्तिसागर जी महाराज ने अपने संघ के साथ उत्तर भारत में विहार किया तो समाज के अधिकांश पंडित उनके साथ हो गए। परिणामतः समाज का नेतृत्त्व पंडितों के हाथ से निकल कर मुनिराजों के हाथ में चला गया। परन्तु मुनिराजों को भी पण्डितों के सहारे की आवश्यकता पड़ी, इसलिए वे भी पंडितों को अपने साथ रखने लगे और अपने विचारों को पण्डितों के माध्यम से समाज में पहुँचाने लगे। परिणामतः समाज में विद्वानों-साहित्यकारों एवं समाज सेवियों के सम्मान में अभिनंदन ग्रन्थ प्रकाशित करने की एक परम्परा चल पड़ी जिसका सभी क्षेत्रों में स्वागत किया गया। अभिनन्दन ग्रन्थों को विद्वानों ने जैनधर्म एवं इतिहास का एक संदर्भ ग्रन्थ बनाने का प्रयास किया। इस प्रयास का बहुत सफल परिणाम सामने आया। इसके माध्यम से समाज को नया ज्ञान प्राप्त हुआ तथा शोधार्थियों एवं विद्वानों को जैन धर्म-साहित्यसंस्कृति की गूढ़ परतों को खोलने में सहायक सिद्ध हुआ। प्रस्तुत अभिनन्दन ग्रन्थ को भी इन सभी सन्दर्भो में साकारता दी गई जिसे पढ़कर समाज का प्रबुद्ध वर्ग अपने आपको लाभान्वित कर सकेगा। उन्नीसवीं शताब्दी से ही सन्तों-विद्वानों एवं श्रेष्ठ समाजसेवियों के सम्मान में अभिनन्दन ग्रन्थ अथवा स्मृति ग्रन्थ निकालने की परम्परा का जन्म हुआ। सम्भवतः सर्वप्रथम स्वनामधन्य पं. नाथूरामजी प्रेमी मुंबई का अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकाशित हुआ था। जिसका सम्पूर्ण भारत में हार्दिक स्वागत किया गया। इसके पश्चात् यशस्वी शीर्ष साहित्यकारों विद्वानों पूज्याचार्यों एवं श्रेष्ठ समाजसेवियों के अभिनन्दन ग्रन्थ एवं स्मृतिग्रन्थों का प्रकाशन साकार होने लगा जो समाज संस्कृति की एक धरोहर के रूप में गौरान्वित है। समाज ने एवं विद्वानों ने इसका सदैव स्वागत किया है। विद्वानों के सम्मान की परम्परा 19 वीं शताब्दी से अभिनन्दन ग्रन्थों के रूप में साकार देखी गई है। यद्यपि जब से विद्या का आदर है तभी से विद्वानों की स्तुति होती आ रही है। नीतिकारों ने भी लिखा है 'स्वदेशे पूज्यते राजा विद्वान् सर्वत्र पूज्यते' इस प्रकार की उक्तियाँ लिखकर सदैव विद्वानों का अभिनन्दन किया गया है। विद्वानों ने ही साहित्य, धर्म और श्रमण संस्कृति की रक्षा करते हुए उत्तरोत्तर समुन्नति की ओर ले जाने का भागीरथी श्रम किया है। एक साधक अपनी साधना से जिस प्रकार आत्मा को मोक्ष का पात्र बना देता है उसी प्रकार विद्वान् भी अपनी अविरल ज्ञान साधना से समाज, संस्कृति, धर्म और धर्मात्मा को उन्नति के अग्रमार्ग पर ले जाने में मूल हेतु रहा है। व्यक्ति से लेकर राष्ट्र तक जितने भी आयाम हैं सबकी समुन्नति उस देश के विद्वानों पर आश्रित है। किसी भी राष्ट्र की चहुंमुखी समुन्नति का मुख्य हेतु उसका साहित्य और साहित्यकार होता है। भारतदेश में आज भी हजारों वर्षों के पूर्व के विद्वानों का चिन्तन आज के इस बदलते हुए विकासवादी युग में क्यों नवीनता लिए हुए है। इसका मुख्य कारण है कि उन्होंने जिस विषय पर अपना चिन्तन गहराई तक ले जाकर वस्तु के तथ्य को जब तक प्राप्त नहीं कर लिया तब तक अपने चिन्तन की धारा को निरन्तर बढ़ाते रहे। IX

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