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श्रीपा.च. २
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उस नगरी में तो बनोमें अनेक केलियोंके वृक्ष हैं और जहां रति प्रीति ठिकाने २ है लोकमें रति कामदेवकी स्त्री और प्रीति देवाङ्गना एक २ है वहां तो सर्वत्र परस्पर राग और प्रीति है ॥ ४३ ॥
तीसे पुरीइ सुरवरपुरीइ, अहियाइ वन्नणं काउं । जइ निउणबुद्धिकलिओ, सक्कगुरू चेव सक्केइ ॥ ४४ ॥
अर्थ — इन्द्रकी नगरीसे अधिक उस उज्जैनी नगरीका वर्णन करनेको जो निपुणबुद्धि: सहित कोई समर्थ होवे तब बृहस्पतिः ही समर्थ होवे और नही लोकरूढ़िसे बृहस्पतिः इन्द्रका गुरू कहा जावे है ॥ ४४ ॥
| तत्थत्थि पुहविपालो पयपालो, नामओ य गुणओ य । जस्स पयावो सोमो भीमोवि य सिट्टदुट्ठेसु ॥४५॥
अर्थ - उस नगरी में प्रजापाल नामका राजा है वह नामसे और गुणसे प्रजापालही है प्रजां पालयतीति प्रजापालः | ऐसी व्युत्पत्तिः होनेसे और कैसा है राजा जिसका प्रताप सज्जनोंमें सौम्य है और दुष्टोंमें भयंकर है ॥ ४५ ॥ तस्स वरोहे बहुदेहसोह, अवहरिय गोरिगवेवि । अचंतं मणहरणे, निउणाओ दुन्नि दोवीओ ॥ ४६ ॥
अर्थ-उस राजाके अंतःपुरमें दो रानी पतिका मनरंजनकरनेमें अत्यन्त निपुण हैं कैसी रानियां हैं शरीर की | शोभा करके पार्वतीका गर्व हरण किया है जिन्होंने ऐसी दो देवी विशेष करके अन्तेवरमें सौभाग्यवती हैं ॥ ४६ ॥ सोहग्ग लडह देहा, एगा सोहग्गसुंदरीनामा ! वीया य रूवसुंदरी, नामा रूवेण रइतुल्ला ॥ ४७ ॥
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