Book Title: Shrenika Charitra
Author(s): Shubhachandra Acharya, Dharmchand Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम्
पुनर्विलोक्य वोततं दृष्टमात्रप्रियं परं । सामग्री सकलं तुंगं तुतोष नरनायकः ॥ २४ ॥ अश्वरत्नमिदं सारं सर्वाश्वाधीशतां गतं ।
मद्गृहे नास्तिचेदृक्षं बभाणेति वचोनृपः ॥ २५ ॥ जिस समय महाराज उपश्रेणिक ने चन्द्रपुर के राजा सोम शर्मा की भेजी हुई भेंट को देखा तो वे सोम शर्मा के मन की भीतरी अभिप्राय को न समझ उसके विनयभाव पर अतिशय मुग्ध होकर उसकी बारम्बार प्रशंसा करने लगे और भेंट से अपने को धन्य भी मानने लगे॥२३-२४।। ऊपर से ही मनोहर घोड़े को देख वे मुक्तकण्ठ से यह कहने लगे कि अहा यह राजा सोम शर्मा का भेजा हुआ घोड़ा सामान्य घोड़ा नहीं है किन्तु समस्त घोड़ों का शिरोमणि अश्वरत्न है मेरी घुड़साल में ऐसा मनोहर घोड़ा कोई है ही नहीं ॥२५॥
तत्परीक्षाकृते राजा-चटित्वा स स्वयं वनं । गतः क्रीड़ा परां प्राप्तः पश्यन् वनसुवेदिकाम् ॥ २६ ॥ कशाघातः कृतो यावत्तावदुष्ट तुरंगमः । अगमद्राज्यसंघातं मुक्त्वा भीते वने घने । २७ ।। न तिष्ठति तदा दुष्टो वीतो विश्व विवंचकः । महाटव्यां प्रविष्ट: स न वेत्त्यमुखजालकं ॥ २८ ।। क्रोशंति जंबुका यत्र फूत्कुर्वंति फणीश्वराः । रटंति वनभल्लूका निनदंतिमहागजाः ।। २६ ।। पतंति मर्कटा वृक्षा-चीत्कुर्वन्ति च वंशकाः । पक्षिणः पानसंतुष्टाः कृत रावा नदंत्यहो ।। ३० ॥ निक्षिप्तस्तत्र राजेंद्रस्तेन वातेन पापिना ।
गर्तेऽत्यंतमहारौद्रे नारके बा परे तदा ।। ३१ ।। ऐसा कहते-कहते उस घोड़े की परीक्षा करने के लिए वे अपने-आप उस पर सवार हो गये, और चढ़कर मार्ग में अनेक प्रकार की शोभाओं को देखते हुए एक वन की ओर रवाना हुए॥२६॥ जिस समय महाराज उपश्रेणिक वन के मध्य भाग में पहुँचे आनन्द में आकर घोड़े को कोड़ा लगाया फिर क्या था ? कोड़ा लगते ही वह अशिक्षित एवं दुष्ट घोड़ा उछलकर बात-की-बात में ऐसे भयंकर वन में निर्भयता से प्रवेश कर गया जहाँ अजगरों के फुत्कार हो रहे थे, रीछ भी भयंकर शब्द कर रहे थे, बड़े-बड़े हाथी भी चिंघाड़ रहे थे और बन्दर वृक्षों से गिर पड़ने पर भयंकर चीत्कार कर रहे थे एवं जहाँ-तहाँ भाँति-भाँति के पक्षियों के भी शब्द सुनाई पड़ते थे। घोड़े ने उस वन में प्रवेश कर, महाराज उपश्रेणिक को ऐसे अन्धकारमय भयंकर गड्ढे में, जहाँ सूर्य की किरण प्रवेश नहीं कर सकती थी, पटक दिया और बात-की-बात में दृष्टि से लुप्त हो गया ॥२७-३१॥
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