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0 श्री आचकाचार जी
गाथा-१६ Oo अपना आत्मकल्याण करना चाहते हैं, मुक्ति मार्ग पर चलना चाहते हैं, उन्हें संसार, प्रकार की अनुकूलता है और भीतर किसी प्रकार का भय हो, तो क्या वह सुखी शरीर भोगों से विरक्त होना अत्यन्त आवश्यक है। सम्यकदर्शन होने के बाद भी जब आनंद में है ? नहीं है। तो अब विचार करो कि संसार में जो सुख शांति आनंद तक इस शरीर की विषयाशक्ति और पाप-परिग्रह नहीं छूटते,तब तक जीव सुख , दिखाई देते हैं, क्या वह वास्तविक सत्य है, मात्र मन की संतुष्टि और अपने को शान्ति में नहीं रह सकता, आनंद तो संयम तप करने, वीतरागी होने पर ही आता देखने का धोखा है, यह तो उस व्यक्ति से पूछा जाये कि क्या वास्तव में तुम सुखी
हो, तो सब संसार रोता, दुःखी ही नजर आयेगा, क्योंकि कहा हैयहाँ कोई प्रश्न करे कि इस संसारी जीवन में जो पुण्यादि की अनुकूलता से
दाम बिना निर्धन दु:खी,तृष्णा वश धनवान। सुख शान्ति आनंद मिलता है, इसमें और सम्यक्दर्शन होने, मुक्ति मार्ग पर चलने,
कहूंन सुख संसार में, सब जग देखो छान॥ संयम तप करने वीतरागी बनने पर जो सुख शान्ति आनंद होता है उसमें क्या अंतर, इस प्रकार संसार में कहीं सुख है ही नहीं, सुख तो अपने में अपनी आत्मा में है? क्योंकि हमें तो ऐसा लगता है कि जो संसार में सुख है, पुण्यादि की अनुकूलता है, आत्मा ही सुख स्वभावी ज्ञानानंदमयी है। पर में सुख की कल्पना तो अज्ञान में जो शान्ति आनंद है, वह खाना पीना छोड़ने, भूखे रहने ,व्रत संयम लेने, मिथ्यात्व दशा है, जिसमें संसारी जीव निरंतर लगा हुआ है। सम्यक्दर्शन अर्थात् त्यागी साधु होने वालों को तो हो ही नहीं सकता क्योंकि हम देखते हैं कि संसार में आत्म श्रद्धान,आत्मानुभूति होने पर जो सुख,शांति,आनंद होता है,वह वास्तविक जो वैभवशाली हैं, जिनके पुण्य का अच्छा उदय है, वह हमेशा प्रसन्न, स्वस्थ्य, सत्य होता है, वह पराधीन इन्द्रियों का सुख नहीं होता, स्वाधीन अतीन्द्रिय सुखी आनंद में दिखाई देते हैं और व्रत नियम संयम तप त्याग करने वाले, त्यागी,साधु सुख होता है, जो हमेशा रहता है तथा सम्यक्दर्शन होने के पश्चात् सम्यक्ज्ञान, हमेशा उदास-मायूस, दु:खी, खेद, खिन्न अस्वस्थ्य दिखाई देते हैं। जितनी संयम-तप होने से शांति और सम्यकचारित्र वीतराग होने पर आनंद आता है; और कषाय,ईर्ष्या, द्वेष संसारी जीवों में नहीं होती, उससे ज्यादा त्यागी, साधुओं में मुक्ति में इसी की परिपूर्णता, परम सुख,परम शांति,परमानंद होता है। सम्यक्दर्शन दिखाई देती है, यह सब क्या है ?
अरहित कोई त्याग, वैराग्य ,संयम आदि करे ,त्यागी साधु हो जावे तो भी उसे सच्चा इसका समाधान करते हैं कि सुख शांति आनंद किसे कहते हैं, उसकी सुख,शान्ति, आनंद मिलने वाला नहीं है, वह तो शुभ क्रियाओं में लगकर पुण्य बन्ध परिभाषा क्या है, पहले इसे समझ लो, तो फिर सब बात अपने आप समझ में आ करेगा, उससे क्या मिलने वाला है ? क्योंकि कहा है - जायेगी। सुख अर्थात् जहाँ कोई आकुलता विकल्प न हो, दु:ख के अभाव को सुख, आतम को हित है सुख, सो सुख आकुलता बिन कहिये। कहते हैं। शांति अर्थात् जहाँ कोई शल्य, चिन्ता न हो, चिन्ता के अभाव को शांति
आकुलता शिव माहिनतातें,शिवमग लाग्यो चाहिये ॥ कहते हैं। आनंद अर्थात् जहाँ कोई भय, चाह न हो, भय के अभाव को आनंद कहते बाहर की क्रिया से सुख-दुःख का कोई संबंध नहीं है, अन्तरंगपरिणति में जो हैं। संसार में जो सुख शांति आनंद दिखाई देते हैं यह वास्तविक स्थायी नहीं हैं, यह १ आकुलता विकल्प है वही दुःख है, शल्य-चिन्ता है वही अशान्ति है तथा भय, चाह तो मात्र मन की संतुष्टि होने से ऐसा लगने लगता है, अनुकूल परिस्थिति में सुख आदि है, वही घबराहट, बेचैन दशा है और जहाँ यह नहीं हैं, वहीं सुख शांति आनन्द और प्रतिकूल परिस्थिति में दुःख; तो यह सुख तो पराधीन परिस्थिति के आधीन है। सम्यक्दृष्टि जीव तो हर समय, हर दशा में सुखी, प्रसन्न रहता है, उसकी दशा हुआ। जैसे कोई बाहर से शान्त बिल्कुल फुरसत में बैठा हो और उसके अंतर में तोशल्य, विकल्प चल रहे हों तो क्या वह सुख शांति में है? नहीं है। इसी प्रकार कोई
गेही पे ग्रह में न रचे,ज्यों जल से भिन्न कमल है। भोजन कर रहा हो और सब प्रकार के अच्छे स्वादिष्ट व्यंजन बने हों परन्तु कहीं
नगर नारि को प्यार यथा, कादे में हेम अमल है॥ जाने की शल्य लगी हो, भीतर किसी प्रकार के विकल्प चल रहे हों, कोई चिन्ता हो बाहर में कैसा रहता है, क्या करता है, यह ज्ञानी की अपूर्व दशा है, जो तो क्या उसे भोजन में आनंद आयेगा? नहीं। बाहर खूब पुण्य का वैभव है, सब सहज शब्दों से या बाहर से जानने में नहीं आती। सम्यक्दृष्टि संयम तप करे,
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