Book Title: Shravakachar
Author(s): Gyanand Swami
Publisher: Gokulchand Taran Sahitya Prakashan Jabalpur

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Page 215
________________ 04 श्री आपकाचार जी गाथा-३३७.३३९ DOO उत्तमक्षमा आदि दशधर्मों का स्वयं पालन करते हुए उन्हीं की शिक्षा अन्य साधुओं नहीं इस भावना से अपने में स्वस्थ स्थिर रहना उत्तम शौच धर्म है। को देते हैं,उनका काम पढ़ाने शिक्षा देने का है। ५. उत्तम सत्य-वस्तु स्वरूप का यथार्थ निर्णय होना,अपने में निर्विकारी दस लक्षण धर्म निम्न प्रकार हैं र न्यारे ज्ञायक रहना । अपना सत् स्वरूप ही सत्य है,शेष जगत का परिणमन १. उत्तम क्षमा-उत्कृष्ट क्षमा, क्रोध कषाय का अभाव।दूसरों के द्वारा पीड़ित,* असत्,परिवर्तनशील, नाशवान है इस प्रकार सत्य का पूर्ण श्रद्धान होना उत्तम सत्य बध-बन्धन आक्रोशित किये जाने पर किंचित् भी क्रोध का विकार पैदा न होना, पूर्ण है। उत्तम सत्य धर्म का प्रमाण श्री सनतकुमार चक्रवर्ती हैं। आत्मा सत् स्वरूप ही शान्त, साम्यभाव में रहना उत्तम क्षमा है। अपने पूर्व कर्म बन्धोदय का विचार है, ऐसे अपने सत् स्वरूप में स्थित रहना उत्तम सत्य धर्म है। करना,पूर्णशान्त भाव में रहकर कर्मों की निर्जरा करना क्षमा धर्म है। उत्तम क्षमा का C ६. उत्तम संयम- हमेशा अपने में स्वस्थ सावधान होश में रहना, अपनी प्रमाण श्री यशोधर मुनिराज हैं।आत्मा अरस अरूपी अस्पर्शी अविनाशी है, मुझे । सुरत रखना। पाँचों इन्द्रिय और मन के चक्कर में नहीं फंसना, विषयों से विरक्त कोई छू नहीं सकता, मार नहीं सकता इसी भावना से अपने आत्म स्वरूप में लीन रहना,छहों काय के जीवों के प्रति दया करुणा भाव होना,उनकी रक्षा करना और रहना उत्तम क्षमा धर्म है। अपने में आत्मस्थ प्रसन्न रहना उत्तम संयम है। उत्तम संयम धर्म का प्रमाण श्री २. उत्तम मार्दव-उत्कृष्ट सरलता, मान कषाय का अभाव । सर्व साधनवर्द्धमान महावीर स्वामी हैं। अपनी आत्मा की विषय विकारों से रक्षा करना, अपने सर्वगुण सम्पन्न होते हुए दूसरों द्वारा अपमानित, पीड़ित किये जाने पर भी किंचित् आत्म स्वरूप में स्वस्थ सावधान रहना ही उत्तम संयम धर्म है। मात्र भी मान कषाय का न आना, सरल साम्यभाव में रहना,मान-अपमान में समता ७. उत्तम तप-अपने आत्म स्वभाव में लीन रहना, उत्तम तप है। बारह भाव रखना, अपने से श्रेष्ठ गुणीजनों धर्मात्माओं की विनय भक्ति करना उत्तम प्रकार के तपों का पालन करते हुए उपसर्ग परीषहों को जीतना,कभी भी किसी दशा मार्दव धर्म है। उत्तम मार्दव धर्म का प्रमाण श्री पार्श्वनाथ मुनिराज हैं। आत्मा काS में आकुल-व्याकुल, दु:खी न होना, विकल्पों में न उलझना, निर्विकल्प रहना ही न कोई शत्रु होता है, न मित्र होता है, न कोई मान-अपमान होता है । मैं एक उत्तम तप है। उत्तम तप धर्म का प्रमाण श्री कुन्दकुन्दाचार्य हैं। स्वरूप विश्रान्ति का अखंड अविनाशी चैतन्य तत्व मात्र ज्ञाता दृष्टा हूँ इस भावना से अपने में विनीत नाम ही उत्तम तप धर्म है। रहना उत्तम मार्दव धर्म है। ८. उत्तम त्याग- मोह, राग-द्वेष को छोड़ देना ही उत्तम त्याग है। अपनी ३. उत्तम आर्जव- उत्कृष्ट सहजता, माया कषाय का अभाव । अनेक कष्ट आत्मा को सम्यक्ज्ञानी बनाना ज्ञानदान है।अतृप्त तृषित आत्मा को धर्मामृत पान पड़ने, भोजन आदि का अलाभ होने पर या कोई उपसर्ग आने पर भी चलायमान न कराना आहारदान है। अनादि अज्ञान मिथ्यात्व महारोग से छुड़ाना सम्यक्दर्शन होना, कोई मायाचारी का भाव न आना, अपने दोषों का गुरू से प्रायश्चित लेना, रूपी औषधि देना औषधि दान है। भयभीत कर्मों से व्याकुल आत्मा को परमात्म मायाचार रहित शुद्ध आचरण पालना, कुटिलता रूप मन वचन काय की प्रवृत्ति न स्वरूप बताकर अभय बनाना अभय दान है। संयोगी पदार्थों का सत्पात्रों की होना उत्तम आर्जव है। उत्तम आर्जव धर्म का प्रमाण सती शिरोमणि श्री सीताजी हैं। आवश्यकता पूर्ति हेतु दान देना व्यवहार दान है। उत्तम त्याग धर्म का प्रमाण श्री माया (कर्म) संसार है,ब्रह्म (आत्मा) पूर्ण शुद्ध मुक्त है,इस भावना से अपने ब्रह्मबाहबली स्वामी हैं। समस्त संकल्प-विकल्पों का त्यागकर निर्विकल्प निजानंद में स्वरूप में रमण करना उत्तम आर्जव धर्म है। 5 रहना उत्तम त्याग धर्म है। ४. उत्तम शौच-उत्कृष्ट शुचिता, पवित्रता,लोभ कषाय का अभाव। किसी ९.उत्तम आकिंचन्य-इस जगत में परमाणु भी अपना नहीं है, एक समय भी प्रकार की कामना वासना का न रहना, समस्त पाप-परिग्रह से विरक्त अपने की चलने वाली पर्याय भी मेरी नहीं है। मैं ध्रुव तत्व मात्र हूँ , ऐसी भावना भाते हुए शुद्ध चैतन्य स्वरूप में स्थित रहना उत्तम शौच है। उत्तम शौच धर्म का प्रमाण श्री अन्तरंग रागादि, बहिरंग क्षेत्रादि परिग्रह से निर्ममत्व रहना, केवल अपने शुद्धात्म सुकुमाल स्वामी हैं। आत्मा अपने में पूर्ण पवित्र है, इसका पर से कोई सम्बन्ध है ही स्वरूप को ध्याना,निज स्वभाव में लीन रहना ही उत्तम आकिंचन्य धर्म है। उत्तम

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