Book Title: Shravakachar
Author(s): Gyanand Swami
Publisher: Gokulchand Taran Sahitya Prakashan Jabalpur

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Page 270
________________ reOuी आपकाचार गाथा-४५०,४५१ Oo अन्तर्मुहूर्त कहा है अर्थात् वज्रर्ऋषभ नाराच, वजनाराच, नाराच संहनन के धारक छटेगुणस्थान में निदान बंध को छोड़कर शेष तीन आर्तध्यान होते हैं; परंतु सम्यक्त्व पुरुषों का अधिक से अधिक एक समय कम दो घड़ी (अड़तालीस मिनिट) तक एक अवस्था में मंद होने से तिर्यंच गति के कारण नहीं होते। ज्ञेय पर उपयोग स्थिर रह सकता है, पीछे दूसरे ज्ञेय पर ध्यान चला जाता है। इस रौद्र ध्यान- क्रूर निर्दय परिणामों का होना रौद्र ध्यान है। यह चार प्रकार प्रकार बदलता हुआ बहुत काल तक भी ध्यान हो सकता है। यह ध्यान अप्रशस्त का हैऔर प्रशस्त के भेद से दो प्रकार का है। आर्त और रौद्र यह दो ध्यान अप्रशस्त हैं, १.हिंसानन्दी-जीवों को अपने तथा पर के द्वारा वधपीड़ित,ध्वंस घात होते, इनका फल निकृष्ट है, यह संसार परिभ्रमण के कारण नरक, तिर्यंच गति के दु:खों के हुए हर्ष मानना व पीड़ित करने, कराने का चिंतवन करना हिंसानन्दी रौद्र ध्यान है। मूल हैं और अनादि काल से स्वयं ही संसारी जीवों को हो रहे हैं इसलिये इनकी २. मृषानन्दी-आप असत्य झूठी कल्पनायें करके अथवा दूसरों के द्वारा वासना ऐसी दृढ़ हो रही है कि रोकते-रोकते भी उपयोग इनकी तरफ चला जाता है ऐसा होते हुए जानकर आनन्द मानना व असत्य भाषण करने, कराने का चिंतवन है। सम्यकज्ञानी पुरुष ही इनसे चित्त को निवृत्त कर सकते हैं। धर्म और शुक्ल यह दो करना मृषानन्दी रौद्र ध्यान है। ध्यान प्रशस्त हैं, इनका फल उत्तम है, यह स्वर्ग मोक्ष के सुख के मूल हैं। यह ध्यान ३. चौर्यानन्दी-चोरी करने, कराने का चिंतवन तथा दूसरों के द्वारा इन जीवों के कभी भी नहीं हए। यदि हए होते तो फिर संसार भ्रमण न करना पड़ता; कार्यों के होते हुए आनन्द मानना चौर्यानन्दी रौद्र ध्यान है। इसलिये इनकी वासना न होने से इनमें चित्त का लगना सहज नहीं है किंतु बहुत ही ४.परिग्रहानन्दी-क्रूर चित्त होकर बहुत आरम्भ, बहुत परिग्रह रूपसंकल्प कठिन है अतएव जिस प्रकार भी प्रयत्न करके इन ध्यानों का अभ्यास बढ़ाना चाहिये व चिंतवन करना या अपने-पराये परिग्रह को बढ़ने, बढ़ाने में आनन्द मानना और तत्व चिंतवन,आत्म चिंतवन में चित्त को स्थिर करना चाहिये। परिग्रहानन्दी रौद्र ध्यान है। यहां पर चारों ध्यान के सोलह भेदों का स्पष्ट रूप से वर्णन किया जाता है रौद्र ध्यान नरक गति के कारण हैं। यह पंचम गुणस्थान तक होते हैं; जिससे इनका स्वरूप भली-भांति जानकर अप्रशस्त ध्यानों से निवृत्ति और प्रशस्त सम्यक्त्व अवस्था में मंद होने से नरक गति के कारण नहीं होते। ध्यानों में प्रवृत्ति हो। धर्म ध्यान-सातिशय पुण्य बंध का कारण, शुद्धोपयोग का उत्पादक,शुभ आतं ध्यान-दःख मय परिणामों का होना आर्त ध्यान है। इसके चार भेद हैं- परिणाम धर्म ध्यान कहलाता है। इसके मुख्य चार भेद हैं १.इष्ट वियोगज-इष्ट, प्रिय स्त्री, पुत्र, धन-धान्य आदि तथा धर्मात्मा पुरुषों १.आज्ञा विषय-इस धर्म ध्यान में जैन सिद्धांत में प्रसिद्ध वस्तु स्वरूप को के वियोग से संक्लेश रूप परिणाम होना इष्ट वियोगज आर्त ध्यान है। सर्वज्ञ भगवान की आज्ञा की प्रधानता से यथा संभव परीक्षा पूर्वक चिंतवन करना २.अनि संयोगज-दु:खदाई अप्रिय स्त्री, पुत्र, भाई, पड़ौसी, पशु आदि और सूक्ष्म परमाणु आदि, अंतरित राम-रावण आदि, दूरवर्ती मेरू पर्वत आदि,ऐसे तथा पापी दुष्ट पुरुषों के संयोग से संक्लेश रूप परिणाम होना अनिष्ट संयोगज आर्त छद्मस्थ के प्रत्यक्ष अनुमान आदि प्रमाणों के अगोचर पदार्थों को सर्वज्ञ वीतराग की ध्यान है। आज्ञा प्रमाण ही सिद्ध मानकर तद्रूप चिंतवन करना आज्ञा विचय धर्म ध्यान है। ३.पीडा चितवन-रोग के प्रकोपकी पीड़ा से संक्लेश रूप परिणाम होना व २. अपाय विचय-कर्मों का नाश, मोक्ष की प्राप्ति किन उपायों से हो इस र रोग के अभाव का चिंतवन करना पीड़ा चिंतवन आर्त ध्यान है। के प्रकार आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष आदितत्वों का चिंतवन करना अपाय विचय 2 ४. निदान बंध- आगामी काल में विषय भोगों की वांछा रूप संक्लेश धर्म ध्यान है। परिणाम होना निदान बंध आर्त ध्यान है। ३.विपाक विचय-द्रव्य, क्षेत्र, काल,भाव के निमित्त से अष्ट कर्मों के विपाक आर्त ध्यान संसार की परिपाटी से उत्पन्न और संसार का मूल कारण है। द्वारा आत्मा की क्या-क्या सुख-दु:ख आदि रूप अवस्था होती है उसका चितवन 5मुख्यतया यह ध्यान तिर्यंच गति ले जाने वाला है। पांचवें गुणस्थान तक चारों और करना विपाक विचय धर्म ध्यान है। २४९

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