Book Title: Shravakachar
Author(s): Gyanand Swami
Publisher: Gokulchand Taran Sahitya Prakashan Jabalpur

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Page 288
________________ You श्री आचकाचार जी रत्नत्रय सिद्धान्त सूत्र Oo । मिथ्यात्व नाम कर्म के उदय से अपने स्वरूप के ज्ञान से रहित होकर देह करता हुआ भी उसी प्रकार से रहता है। आदि पर द्रव्यों को अपना स्वरूप जानकर अनन्त काल से मैने परिभ्रमण किया । संसार संबंधी कोई भी वस्तु रमणीय नहीं है, इस प्रकार हमें गुरू। है। अब कोई आवरण आदि के किंचित् दूर होने से श्री गुरुओं के द्वारा उपदेशित के उपदेश से निश्चय हो गया है, इसी कारण हमको मोक्ष पद प्यारा है।। परमागम के प्रसाद से अपना तथा पर के स्वरूप का ज्ञान हुआ है। 0 इस मनुष्य जन्म का फल धर्म प्राप्ति है, सो वह निर्मल धर्म यदि ब्रह्मचर्य बिना व्रत, तप समस्त निस्सार हैं। ब्रह्मचर्य बिना सकल मेरे पास है तो फिर मुझे आपत्ति के विषय में भी क्या चिंता है, मृत्यु से भी क्या काय क्लेश निष्फल है। बाह्य स्पर्शन इन्द्रिय के सुख से विरक्त होकर, अंतरंग 5 डर है ? अर्थात् उस धर्म के होने पर न तो आपत्ति की चिंता रहती है और न ही अपना परमात्म स्वरूप जो आत्मा है, उसकी उज्ज्वलता देखो। जैसे भी अपना मरण का डर रहता है। आत्मा काम के राग से मलिन नहीं हो, वैसे ही यत्न करो। ब्रह्मचर्य से दोनों लोक एकत्व में स्थिति के लिये जो मेरी निरन्तर बुद्धि होती है उसके विभूषित हो जाते हैं। निमित्त से परमात्मा के समीपता को प्राप्त हुआ आनन्द कुछ थोड़ा सा प्रगट । जो मनुष्य विद्वान हैं, संसार के संताप से रहित होना चाहते हैं, उन्हें होता है। वही बुद्धि कुछ काल को प्राप्त होकर अर्थात् कुछ ही समय में समस्त चाहिये कि वे घड़े में पनिहारिन के समान शुद्ध चिद्रूप में अपना चित्त स्थिर कर शीलों और गुणों के आधार भूत एवं प्रगट हुए विपुल ज्ञान (केवलज्ञान) से वचन और शरीर की चेष्टा करें। र संपन्न उस आनन्द की कला को उत्पन्न करेगी। । जो विद्वान पुरुष शुद्ध चिद्रूप के चिंतवन के साथ व्रतों का आचरण , मुझे आश्रय में प्राप्त हुए किसी भी मित्र अथवा शत्रु से प्रयोजन नहीं करता है, शास्त्रों का स्वाध्याय, तप का आराधन, निर्जन वन में निवास, है, मुझे इस शरीर में भी प्रेम नहीं रहा है, इस समय मैं अकेला ही सुखी हूँ। यहां बाह्य-आभ्यंतर परिग्रह का त्याग, मौन, क्षमा और आतापन योग धारण संसार परिभ्रमण में चिरकाल से जो मुझे संयोग के निमित्त से कष्ट हुआ है उससे करता है, उसे ही मोक्ष लक्ष्मी की प्राप्ति होती है। मैं विरक्त हुआ हूँ; इसलिये अब मुझे एकाकीपन (अद्वैत) अत्यन्त रुचता है। • जिस प्रकार उत्कृष्ट नाव को प्राप्त हुआ धीर बुद्धि साहसी मनुष्य जो जानता है वही देखता है और वह निरन्तर चैतन्य स्वरूप को समुद्र के अपरिमित जल से नहीं डरता है उसी प्रकार एकत्व को जानकर नहीं छोड़ता है वही मैं हूँ, इससे भिन्न और मेरा कोई स्वरूप नहीं है। यह योगी बहुत से भी कर्मों से नहीं डरता है। हैं समीचीन उत्कृष्ट तत्व है। चैतन्य स्वरूप से भिन्न जो क्रोधादि विभाव भाव । चैतन्य रूप एकव का ज्ञान दुर्लभ है, परन्तु मोक्ष को देने वाला वही अथवा शरीरादि हैं वे सब अन्य अर्थात् कर्म से उत्पन्न हुए हैं। सैकड़ों शास्त्रों को है; यदि वह जिस किसी प्रकार से प्राप्त हो जाता है तो उसका बार-बार सुन करके इस समय मेरे मन में यही एक शास्त्र अर्थात् अद्वैत तत्व वर्तमान है। चिन्तन करना चाहिये। यद्यपि इस समय यह संहनन (हड्डियों का बंधन) परीषहों (क्षुधा वास्तविक सुख मोक्ष में है और वह मुमुक्षु जनों के द्वारा सिद्ध तृषा आदि) को नहीं सह सकता है और दुःषमा नामक पंचमकाल में तीव्र करने के योय है। यहां संसार में वह सुख नहीं है, यहां जो सुख है वह निश्चय तप भी संभव नहीं है; तो भी यह कोई खेद की बात नहीं है ; क्योंकि यह से यथार्थ सुख नहीं है। अतीन्द्रिय सच्चा सुख तो मोक्ष में ही है। अशुभ कर्मों की पीड़ा है। भीतर शुद्ध चैतन्य स्वरूप आत्मा में मन को सुरक्षित जो निर्मल बुद्धि को धारण करने वाला मुनि इस लोक में निरन्तर करने वाले मुझे उस कर्मकृत पीड़ा से क्या प्रयोजन है ? अर्थात् कुछ भी नहीं है। शुद्ध ज्ञान स्वरूप आत्मा को लक्ष्य करके रहता है वह परलोक में संचार जो अज्ञानीजन न तो गुरू को मानते हैं, और न उसकी उपासना ही। २६७

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