Book Title: Shravakachar
Author(s): Gyanand Swami
Publisher: Gokulchand Taran Sahitya Prakashan Jabalpur

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Page 304
________________ ७७ 04 श्री श्रावकाचार जी भजन-५२ करो करो रे धर्म को बहुमान, अब काये मर रहे हो। १. अपनो जग में कोई नहीं है, कछु साथ नहीं जाने। चेतन तत्व अकेलो आतम, वृथा ही भरमाने..... भेदज्ञान से निर्णय कर लो, मैं हूँ सिद्ध स्वरूपी। शुद्ध बुद्ध अविनाशी ज्ञायक, चेतन अरस अरूपी..... ३. आनन्द परमानन्द मयी हो. सख स्वभाव के धारी। मोह राग में मरे जा रहे, कैसी मति यह मारी..... अपनी ही सत्श्रद्धा कर लो, पाप परिग्रह छोड़ो। संयम तप की करो साधना, मोह का बंधन तोड़ो..... ज्ञानानन्द स्वभावी होकर, कहां भटकते फिर रहे। चार गति चौरासी योनि में, कैसे कैसे पिर रहे..... देखो कैसा मौका मिला है, सब शुभ योग है पाया। सत्गुरु तारण तरण का शरणा, इस नरभव में आया..... भजन-५३ आतम निज शक्ति जगइयो, धर्म की श्रद्धा बढ़इयो॥ १. धर्म की महिमा अनुपम निराली, इससे कटती कर्म की जाली॥ शुद्धातम ध्यान लगइयो......धर्म की...... २. धर्म प्रभावना निज में होती, भय चिंता सब ही है खोती॥ निजानन्द बरसइयो......धर्म की...... ३. सुख शांति समता नित बढ़ती, मद मिथ्यात्व कषायें झड़ती॥ ब्रह्मानन्द रम जइयो......धर्म की...... ४. एकै साधे सब सधता है, ज्ञान ध्यान खुद ही बढ़ता है। जय जयकार मचइयो......धर्म की...... ५. ज्ञानानन्द करो पुरुषारथ, क्यों मर रहे हो जग में अकारथ ।। मुक्ति श्री वर लइयो......धर्म की...... आध्यात्मिक भजन Sax भजन-५४ जागो चेतन निजहित कर लो, कर लो अब तैयारी हो। न जाने इस मनुष जन्म की, होवे सोलहवीं वारी हो । १. दो हजार सागर के लाने, त्रस पर्याय यह पाई है। दो इन्द्रिय से पंचेन्द्रिय में, कितनी समय बिताई है। अपना निर्णय खुद ही कर लो,वरना फिर लाचारी हो...न..... २. नित्य निगोद से निकल आये हो, मुक्ति श्री को पाना है। गर प्रमाद में रहे भटकते, इतर निगोद फिर जाना है। कोई साथ न आवे जावे, स्वयं की दुर्गति भारी हो...न..... ३. सदगुरु का शुभ योग मिला है,सब अनुकूलता पाई है। पुण्य उदय भी साथ चल रहा,बज रही यह शहनाई है। अपनी ओर स्वयं ही देखो, यह तो दुनियादारी हो...न..... निज बल पौरुष जगाओअपना, मायामोह का त्याग करो। राग द्वेष भी खत्म करो यह, साधु पद महाव्रत धरो।। ढील ढाल से काम न चलता,हिम्मत हो हुश्यारी हो...न..... ज्ञानानन्द स्वभाव तुम्हारा,अनन्त चतुष्टय धारी हो। आतम परमातम कहलाते, हो रही क्यों दुश्वारी हो। निर्भय होकर आओ सामने, जय जयकार तुम्हारी हो...न..... सम्यकदृष्टि अपने निज स्वरूप को ज्ञाता-दृष्टा, पर द्रव्यों से भिन्न, शाश्वत और अविनाशी जानता है। पर द्रव्य को तथा रागादिक को क्षणभंगुर, अशाश्वत, अपने स्वभाव से भली-भांति भिन्न जानता है इसलिये सम्यक्दृष्टि रागी नहीं होता।

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