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4 श्री श्रावकाचार जी
भजन-५८ धन की कमी नहीं जग में, मिलना उतनई मिलेगा। पाप करो चाहे तृष्णा, मिलना उतनई मिलेगा।
जैसा किया था वैसा ही ढंग है। सबका भाग्य अपने ही संग है। भूखो मरो करो कितना... मिलना..... कौन कहाँ से का कर रहो है। कौन हे कहाँ से का मिल रहो है। देखो करो चाहे जितना ...मिलना. आना जाना सब निश्चित है। लोभ मोह से तू चिन्तित है। कर्मों का अद्भुत करिश्मा...मिलना..... दान पुण्य से धन मिलता है। जैसा किया हो वह खिलता है। करते रहो व्यर्थ भ्रमना ... मिलना ..... दान भोग और नाश है धन का। सुख दुःख होता है, सब मन का॥ मन की ही सारी किलपना... मिलना.....
आध्यात्मिक भजन Sax
भजन-५९ भगवान हो भगवान हो, तुम आत्मा भगवान हो। यह घर तुम्हारा नहीं, यहाँ चार दिन मेहमान हो।
चक्कर लगाते फिर रहे, इस तन में तुम बंदी बने। अपने ही अज्ञान से, राग द्वेष में हो सने ॥
अपना नहीं है होश, बस इससे ही तुम हैरान हो ..... चेत जाओ जाग जाओ, धर्म की श्रद्धा करो। देख लो निज सत्ता शक्ति, मत मोह में अंधा बनो।
अनन्त चतुष्टयधारी हो, इसका तुम्हें बहुमान हो ..... रत्नत्रय स्वरूप तुम्हारा, सुख शांति आनन्दधाम हो। पर में मरे तुम जा रहे, इससे ही तुम बदनाम हो।।
करना धरना कुछ नहीं, अपना ही बस स्वाभिमान हो..... माया तुमको पेरती, राग द्वेष से हैरान हो। अपना आतम बल नहीं, इससे ही तुम परेशान हो।
जाग्रत करो पुरुषार्थ अपना, तुम तो सिद्ध समान हो, ज्ञानानन्द स्वभावी हो, ब्रह्मानन्द के धाम हो। निजानन्द में लीन रहो, सहजानन्द सुखधाम हो।
स्वरूपानन्द की करो साधना. इससे ही निर्वाण हो...
सम्यकदर्शन की प्राप्ति के बाद संसार परिभ्रमण का न्यूनतम काल अन्तर्मुहूर्त और अधिकतम अर्द्धपुद्गल परावर्तनमान है। सम्यक्त्वकी प्राप्ति से सम्यक्दृष्टि जीव के सांसारिक दोषों का क्रमश: अभाव और आत्म गुणों की क्रमश: प्राप्ति अर्थात् शुद्धिका क्रमप्रारम्भ हो जाता है।
पहले आत्मा का आगमज्ञान से ज्ञान स्वरूप निश्चय करके: फिर इन्द्रिय बुद्धिरूपमतिज्ञान को ज्ञानमात्र में ही मिलाकरतथा श्रुतज्ञानरूपीनयों के विकल्पोंको मिटाकर श्रुतज्ञान को भी निर्विकल्प करके एक अखण्ड प्रतिभास का अनुभव करना ही सम्यकदर्शन और सम्यकज्ञान के नाम को प्राप्त करता है। सम्यकदर्शन और सम्यकज्ञान कहीं अनुभव से भिन्न नहीं हैं।