Book Title: Shravakachar
Author(s): Gyanand Swami
Publisher: Gokulchand Taran Sahitya Prakashan Jabalpur

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Page 314
________________ 4 0 श्री आचकाचार जी करो मनन शुद्धातम का अब,संयम तप और दान करो। सत्संगति से धर्म के द्वारा, अपना तुम कल्याण करो ॥ माँ- (दुःखित भाव से) बेटा ! यह माँ की ममता को तू क्या जाने ? यह धर्म की ई बातें यहाँ संसार में नहीं चलतीं । यहाँ तो अनादि से यही सब वंश परम्परा चलती चली आई है, इसी के लिये सब लालायित रहते हैं। बेटा, अपन तो संसारी हैं, इसी प्रकार सब करना और रहना पड़ता है, इन बातों में कोई सार नहीं है। बेटा, अब यह ऐसी बातें मत कर, तेरे पिताजी भी तेरे इन लक्षणों से दु:खी रहते हैं, देख बेटा, माता -पिता की आत्मा को मत दुखा, विवाह कर और यह सब काम-काज सम्हाल, हमें सुखी रहने दे, अब हमें और परेशान मत कर। तारण- (जोश में) माँ ! मेरे विवाह नहीं करने से या यह सब पापकार्य का भार नहीं सम्हालने से तुम्हारी आत्मा दुःखी रहती है या अपने मोह अज्ञान के कारण ? जरा विचार करो । क्या तुम यह चाहती हो कि तुम्हारा बेटा दुःख भोगे, नरक-निगोद में जाये, जन्म-मरण करता फिरे ? अगणित जीव भये इस जग में, कर्म उदय सबके संग आयो। कर करके वे मर भी गये, उनको नहीं कोई पूछन आयो । कर्म उदय में लिप्त भये, तिन जीवों ने कर्म ही कर्म कमायो। धर्म के मारग जो भी चले, तिन अपनो जीवन सफल बनायो । धर्म को धारण जिनने कीनो, उनने ही मोक्ष परम पद पायो। खुद भी पुजे उन वंश पुजो, उन मात पिता मी अमर पद पायो॥ माँ ! अब इस झूठे मोह में मत फंसो, विवेक से काम लो । विचार करो, स्वयं भी आत्म कल्याण करो और आत्म कल्याण करने वाले जीवों के सहायक बनो, बाधक मत बनो। reaknenormeshknorreshneonomictor माँ- (अंश्रुपूरित) नहीं बेटा, हम तो यह चाहते हैं कि तू खूब सुखी रहे, परम आनन्द में रहे, अच्छा धर्म का पालन करे, सदाचारी बने, सब जीवों का हितकारी हो । बेटा, हमारी आत्मा तो इससे प्रसन्न होती है, हमारा नाम बढ़ता है। अभी सबलोग तेरी कितनी प्रशंसा करते हैं, हमारा सम्मान करते हैं, हमारा धन्य भाग्य है ; परन्तु बेटा इसमें विवाह नहीं करने, ग्रहस्थी नहीं बसाने का क्या प्रश्न है ? इसी से तो सब सुखी होते हैं और यही सुख सब चाहते हैं कि हमारे पुत्र हो, परिवार हो, धन हो, वैभव हो, मान हो, सम्मान हो, नाम हो ; और क्या चाहिये ? इसी के लिये सब उठा-पटक झंझट करते हैं। तारण- माँ ! जरा विचार करो, क्या यह सच्चा सुख है ? क्या इससे किसी का कल्याण हुआ है ? यह सब तो दु:ख कर्म बंध और आकुलता के ही कारण हैं और इन्हीं के कारण यह जीव अनादि काल से जन्म-मरण करता, दु:ख भोगता हुआ चारों गतियों में भ्रमण करता फिर रहा है। अपने इस मिथ्या मोह के कारण इस जीव ने सच्चे सुख के स्वरूप को सुना समझा ही नहीं, देखा ही नहीं और इसी झूठी कल्पना में अपना जीवन गंवाता चला आ रहा है। माँ, जरा विचार करो, क्या किसी को इन संसारी कारणों से, धन-वैभव से,पुत्र, परिवार से सुखी होते देखा है ? क्या कोई सुखी हुआ है ? जिसके हैं वह भी दु:खी और जिसके नहीं हैं वह भी दुःखी । संसार में कोई सुखी है ही नहीं। जग मांहि जितने जीव हैं, दिखते न कोई भी सुखी। धनवान तृष्णावश दु:खी, बिन धन के निर्धन दुःखी॥ है सर्व दु:ख का मूल कारण, दृष्टि सदैव परोन्मुखी। विन ज्ञान के जग में कमी, कोई न होता है सुखी ॥ माँ, जरा विचार करो, इस झूठी मान्यता को छोड़ो । सच्चा सुख कहां है ? कैसे मिलता है ? इसे परम गुरू श्री वीतराग सर्वज्ञ देव की वाणी में सुनो, २९३

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