Book Title: Shravakachar
Author(s): Gyanand Swami
Publisher: Gokulchand Taran Sahitya Prakashan Jabalpur

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Page 316
________________ on श्री श्रावकाचार जी जीवनज्योति ROO थे। उन्होंने धर्म को धारण किया, सत्य का साक्षात्कार किया, वस्तु स्वरूप मरे, वह हमेशा के लिये मर गये । माँ ! जो देश के लिये मरता है उसका ही को समझा और आत्मा से परमात्मा, नर से नारायण बन गये । माँ ! भगवान नाम अमर होता है, पर जो धर्म के लिये मरता है, उसका और उसके माता । पैदा नहीं होते, यह जीव ही धर्म को धारण कर भगवान बनता है । यह जैन पिता का नाम भी अमर होता है । त्रेसठ शलाका के पुरुषों का प्रत्यक्ष प्रमाण धर्म स्वतंत्रता का धर्म है । अपनी करनी, अपने आचरण, अपनी भावना से यह है। माँ, अब तुम किसी प्रकार का दु:ख न मानते हुये मुझे आशीर्वाद दो, कि जीव चाहे स्वर्ग चला जाये, चाहे नरक चला जाये, चाहे तिर्यंच गति में जाये, मैं सही मार्ग पर चलूँ। अपना कल्याण करूं और भूले भटके मानवों को धर्म चाहे मनुष्य गति प्राप्त करके धर्म धारण कर इस नश्वर संसार से मुक्त होकर का सत्य स्वरूप बताकर, उनका मार्ग दर्शन करूं। स्वयं आत्मा से परमात्मा बन जाये । जीव स्वतंत्र है, जीव की शक्ति स्वतंत्र है, . माँ- बेटा ! मैं तेरी बातों से प्रभावित हूँ । तू सत्य कहता है । यह मोह-माया का जीव के परिणाम स्वतंत्र है, यह भगवान बन सकता है । यह भगवान महावीर जाल झूठा है । तू ज्ञानी है । पर माँ की ममता नहीं मानती और तेरे पिताजी की घोषणा है, जैन दर्शन की नींव है। अपने मिथ्या मोह और अज्ञान से हम भी........। अपनी शक्ति से अनभिज्ञ, पराश्रित हुए, परतंत्र होकर दु:खी हो रहे हैं और तारण-माँ!तुम कह दोगी तो पिताजी भी मान जायेंगे । माँ की ममता बड़ी होती है, भटक रहे हैं। आज हमें वीतराग सर्वज्ञ देव की वाणी मिली, धर्म के स्वरूप पिता का प्यार होता है । वह चाहता है कि बेटा सुपात्र हो, सदाचारी हो, को समझने का और जीवन में उतारने का यह मनुष्य भव में सौभाग्य प्राप्त धर्मज्ञ हो, उसका यश हो, सम्मान हो, कहीं भी रहे, कुछ भी करे सुखी रहे , हुआ है । क्या इसे भी अब पराधीन, पराश्रित होकर व्यर्थ गंवा दें ? माँ ! हमें : उसका नाम होवे कि वह फलां का पुत्र है । वह अपने पुत्र को झूठे मोह में अपनी शक्ति को जाग्रत करना है, आत्मा से परमात्मा बनना है, अब इस बांधकर नहीं रखता, कड़ी निगाह रखता है कि बिगड़े नहीं, दुश्चरित्र न हो, संसार के चक्र में नहीं फंसना है ; अगर अब भी इतना बुद्धि विवेक होते हुए बदनाम न करे । बाकी और सबमें आवे-जावे, खूब कमावे खावे । पिता को भी हमने अपने कर्तव्य का विचार नहीं किया, अपना हित-अहित नहीं समझा : इतना मोह नहीं होता, जितना माँ को माया मोह होता है । वह अपने पुत्र को तो मनुष्य होने का क्या लाभ ? यह विषय-भोग, यह कर्म फल तो तिर्यंच,5 अपनी आंखों के सामने रखना और देखना चाहती है, पुत्र कहीं भी आवे नारकी, देव सभी भोगते हैं ; तो फिर इस मनुष्य भव की सार्थकता क्या है ? जावे बड़ा स्मरण रखती है, यह माँ की ममता है । माँ ! मैं गलत मार्ग पर नहीं माँ ! जो धर्म का आचरण करता है, सत्य को स्वीकार करता है, वही अमर जाऊंगा, आपकी आज्ञा का उल्लंघन नहीं करूंगा । आपका पूर्ण आशीर्वाद होता है। यह विषय-भोगों में रचने-पचने वालों से नाम अमर नहीं होता है। मिलने से मैं निश्चित होकर अपना कल्याण कर सकूँगा । आपकी और 9 वह स्वयं तो डूबता ही है औरों को भी डुबाता है। आज संसार में उन्हीं का नाम पिताजी की सेवा करूंगा । गुरू की सेवा करूंगा, अपने समाज की, अमर है जो धर्म के लिये जिए धर्म के लिये मरे, वह अमर हो गए। जो देश और धर्मात्माओं की, साधर्मी जीवों की सेवा करूंगा । दु:खी और भटके हुए धर्म के लिए मरे वह अमर हो गए। जो धन के लिये, विषय भोगों के लिये जिये जीवों को सन्मार्ग पर लगाऊंगा। आप आशीर्वाद दीजिये, यह विवाह करने eatoreknorreckonekriorrectionedroine २९५

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