Book Title: Shravakachar
Author(s): Gyanand Swami
Publisher: Gokulchand Taran Sahitya Prakashan Jabalpur

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Page 319
________________ ॐ श्री आरकाचार जी इस प्रकार जीवन ज्योति के चार भागों में प्रथम भाग में १४ परिच्छेद हैं, द्वितीय भाग में २८ परिच्छेद, तृतीय भाग में ३४ और चतुर्थ भाग में ५३ परिच्छेद हैं । इन चारों भागों में श्री गुरू तारण स्वामी का संपूर्ण जीवन परिचय और तारण पंथ के अस्तित्व से संबंधित सभी रहस्य उद्घाटित हुए हैं, जो संक्षेप में इस प्रकार हैं श्री गुरू तारण स्वामी की शुद्ध अध्यात्म की चर्चा और तदनुरूप चर्या से भट्टारकीय खेमे में खलबली मच गई और मात्र दर्शन पूजन करने वालों के अतिरिक्त सभी लोगों के लिये मंदिर में आना-जाना बंद कर दिया गया, एतदर्थ मिती वैशाख शुक्ल १५ संवत् १५३३ में मंदिर बंद की सूचना हेतु नोटिस लगाया गया । श्री गुरू तारण स्वामी का मंदिर में प्रवचन, चर्चा होना बंद हुई और वे तो वीतरागी मार्ग के पथिक थे उन्हें किसी से कोई प्रयोजन, स्वार्थ नहीं था, वे अपनी आत्म साधना में लीन रहने लगे । नगर के जिज्ञासु जीवों के विशेष आग्रह पर सप्ताह में एक दिन चौपाल पर प्रवचन प्रारम्भ हुआ और जैन- अजैन लोग उनके शिष्य बनने लगे । आध्यात्मिक क्रांति का सूत्रपात हो गया । दिनों-दिन वृद्धिगत होती हुई वीतरागता और धर्म प्रभावना से चिंतित होकर भट्टारकों ने षड्यंत्र पूर्वक श्री तारण स्वामी के लक्ष्मण सिंघई से येन केन प्रकारेण जहर दिलवाया ; परिणाम स्वरूप धर्म की महिमा प्रभावना अधिक होने लगी । मामा YEAH YEAR. संवत् १५३५ में श्री तारण स्वामी की माँ वीरश्री देवी का समाधिमरण हुआ तत्पश्चात् श्री तारण स्वामी ने सातवीं ब्रह्मचर्य प्रतिमा की दीक्षा ग्रहण कर ली । धर्म का अतिशय बरसने लगा और वीतरागता की महिमा प्रभावना, चारों ओर जय-जयकार, जागरण होने लगा । भट्टारकों को यह सब रुचिकर नहीं लगा और पुन: षड़यंत्र पूर्वक मिती कुंवार शुक्ल २ संवत् १५४६ में गहरी बेतवा नदी में डुबाया गया ; फलत: तीन जगह डुबाया और तीनों जगह टापू बने, जो आज भी उनकी यशोगाथा की कहानी कह रहे हैं। इसके पश्चात् तीव्र गति से प्रभावना का योग बना और श्री तारण स्वामी दिनों-दिन वीतरागी होते गये, आत्म साधना में वृद्धि होती गई और हजारों लोग उमड़ने लगे, शिष्यता स्वीकार करने के लिये । यह सब देख समझकर उनके प्रमुख शिष्यों ने श्री तारण तरण श्रावकाचार गाथा १९९-२०० के आधार पर ०७ २९८ जीवन ज्योति तारणपंथी होने का विधान बनाया कि जो भी व्यक्ति सात व्यसन (जुआ खेलना, मांस भक्षण करना, मदिरा सेवन करना, वेश्या गमन, शिकार करना, चोरी करना और पर स्त्री रमण) का त्याग कर अठारह क्रियाओं का पालन करेगा वही तारण पंथी कहलायेगा | अठारह क्रियायें धर्म की श्रद्धा अर्थात् सम्यक्त्व, अष्ट मूलगुणों का पालन करना, चार दान देना, रत्नत्रय की साधना करना, पानी छानकर पीना और रात्रि भोजन त्याग | इन अठारह क्रियाओं का पालन करने वाला तारण पंथी अर्थात् मोक्षमार्गी होगा । इस विधान के आधार पर मिती वैशाख शुक्ल ५ संवत् १५५२ को तारण पंथ की स्थापना हुई और श्री संघ बना इसके साथ ही श्री गुरू महाराज के प्रथम भ्रमण में ५ लाख शिष्य बने और दूसरे भ्रमण में यह संख्या ११ लाख हो गई। ६० वर्ष की आयु में मिती अगहन शुक्ल ७ संवत् १५६५ को श्री गुरू ने निर्ग्रथ दिगम्बरी जिन दीक्षा धारण की। उनके श्री संघ में ७ मुनिराज, ३६ आर्यिकायें, ६० व्रती श्रावक और २३१ ब्रह्मचारिणी बहिनें तथा लाखों की संख्या में अठारह क्रियाओं का पालन करने वाले आत्मार्थी श्रावक थे। उनकी संपूर्ण शिष्य संख्या के १५१ मंडल बने जिससे साधना और प्रभावना व्यवस्थित रूप से होती रही। इस संपूर्ण चेतना और आध्यात्मिक क्रांति के जनक श्री गुरू तारण स्वामी को मिती माघ शुक्ल ५ संवत् १५६५ को मंडलाचार्य पद से अलंकृत किया गया और धूम धाम से प्रभावना पूर्वक दीक्षा महोत्सव मनाया गया । श्री गुरू तारण तरण मंडलाचार्य जी महाराज ने अपनी आत्म साधना के अंतर्गत चौदह ग्रंथों की रचना की जिनमें अपने आत्म स्वरूप की अनुभूति पूर्ण साधना, जिनवाणी के आधार पर सैद्धांतिक और प्रायोगिक रूप से निरूपित की गई है। पूज्य गुरुदेव आत्म साधना के मार्ग में निरंतर अग्रणी रहे । अपने जीवन के अंतिम क्षणों में उन्होंने मिती ज्येष्ठ वदी ६, दिन शुक्रवार की रात्रि, संवत् १५७२ में समाधि धारण करके सर्वार्थ सिद्धि को प्राप्त हुए । 5 जब तारण तरण इति

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