Book Title: Shravakachar
Author(s): Gyanand Swami
Publisher: Gokulchand Taran Sahitya Prakashan Jabalpur

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Page 298
________________ श्री श्रावकाचार जी भजन-३१ देखो देखो रे समता से आतमराम, जगत में का हो रहो।। १. तुम्हरो कोई से कछु नहीं मतलब.काये मरे तम जा रहे। अपने आप ही सब हो रहो है, तुम क्यों चक्कर खा रहे...देखो..... २. शांत रहो अपनी सुधि राखो, इधर उधर मत भटको। हिम्मत करलो दृढ़ता धर लो, जग में अब मत भटको...देखो..... ३. अपना क्या है क्या करना है, किससे क्या है नाता। अपना तो कोई भी नहीं है, भाई पिता और माता...देखो..... ४. अपनी अपनी सबको पड़ी है, सब मनमानी कर रहे। जे हे जैसो करने कर रहो, तुम काहे को मर रहे...देखो..... किसी का कोई नहीं दुनियां में, स्वारथ प्रीत है सारी। ज्ञानानन्द चेत जाओ अब, छोड़ो दुनियादारी...देखो.... भजन-३२ चैतन्य प्रभु की सरकार, जो मन हमरो का कर है। १. अन्त: करण में चारई जुड़े हैं, मन बुद्धि चित अहंकार...जो..... २. भूल से अपनी हम ही फंसे थे , मान रहे थे परिवार...जो..... ३. भेदज्ञान से भिन्न जान लये, अपने अपने ही सब करतार...जो..... ४. कामना वासना ममता आसक्ति, सब ही हैं दुःख के द्वार...जो. ५. कर्ता भोक्ता सब ये ही हैं, हम तो हैं जाननहार...जो. ६. अपनी सत्ता शक्ति देख लई, रत्नत्रय भंडार...जो..... ७. ध्रुव धाम के हम हैं वासी, शुद्ध बुद्ध अविकार...जो. ८. तत्व निर्णय अब पूरो हो गओ, कर लओ सब स्वीकार...जो. ९. कोई की बातों में अब नहीं लगेंगे, राखेंगे अपनी सम्हार...जो. १०. ज्ञाता दृष्टा ज्ञायक रहेंगे, उर में दृढ़ता धार... जो... ११. ज्ञानानन्द स्वभाव हमारा, करेंगे मुक्ति बिहार... जो..... १२. निजानन्द में मस्त रहेंगे, मचायेंगे जय जयकार...जो..... आध्यात्मिक भजन 0 भजन-३३ मुट्ठी बांधे आया जग में, हाथ पसार जायेगा। तेरे साथ में कुछ नहीं जावे, तू यों ही भरमायेगा। १. पर को तूने अपना माना, अपना ध्यान नहीं लाया। मोह अज्ञान में लिप्त रहा तू, चारों गति का दुःख पाया। चेत अभी भी सावधान हो, दुःखों से बच जायेगा...तेरे..... २. तन धन जन सब कर्म उदय से, मिलते और बिछुड़ते हैं। कोई साथ न आता जाता, अपने आप सिकुड़ते हैं। तूने इनको अपना माना, इससे दुर्गति पायेगा...तेरे..... ३. देख सम्हल जा अभी चेत जा, यह सब दुनियादारी है। अपनी मूढता से तू मरता, मोह ने मति यह मारी है।। भेदज्ञान तत्व निर्णय करले, वरना धोखा खायेगा...तेरे.... ४. अरस अरूपी निराकार तू , ज्ञानानन्द स्वभावी है। शुद्ध बुद्ध है अलख निरंजन, सिद्ध परम पद वासी है।। अपना ही श्रद्धान तू करले, कर्मों से छूट जायेगा...तेरे..... भजन- ३४ बंधन मुक्त बंधा माने, फिर उसको कौन छुडाये। प्रभुजी कैसी मति भरमाये॥ सब प्रकार स्वतंत्र स्वाश्रय, ज्ञान ध्यान श्रद्धान । पात्रतानुसार सब पक्का पूरा, आगे की कर रहे चाह... प्रभु..... पाप पुण्य का भोग कर रहे, अपना नहीं बहुमान। कैसे आनंद में रह रहे हो, इसकी नहीं परवाह... प्रभु..... ३. कोई शल्य विकल्प नहीं है, भय चिंता न खेद। फिर भी उल्टे पड़े रो रहे, तुमको कौन समझाये... प्रभु..... C २७७

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