Book Title: Shravakachar
Author(s): Gyanand Swami
Publisher: Gokulchand Taran Sahitya Prakashan Jabalpur

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Page 300
________________ श्री श्रावकाचार जी भजन- ३९ तुम्हें का करने राम,काहे को पर में भटक रहे। कौन से अब का लेने देने, कौन से है का मतलब । निज सत्ता शक्ति को देखो, क्यों रहते हो गफलत ॥ २. जो होने वह हो ही रहो है, क्रमबद्ध सब निश्चित । अपने चाहे से कुछ नहीं होवे , टाले टले न किंचित्॥ शुद्ध बुद्ध अविनाशी चेतन , तुम तो सिद्ध स्वरूपी। पर पुद्गल पर्याय भिन्न सब, तुम तो अरस अरूपी॥ ज्ञानानन्द स्वभावी हो तुम, ज्ञाता दृष्टा ज्ञानी। कर्मोदायिक परिणमन सारा, काये बने अज्ञानी। जे को जब जैसो होने है, हो रहो है होवेगो। आवो जावो सब निश्चित है,खोने है खोवेगो।। भेदज्ञान तत्व निर्णय कर लओ, अब का कसर बची है। धर्म मार्ग पर चल ही रहे हो, जय जय कार मची है।। ७. शांत रहोसमता से देखो.निज बहमान जगाओ। अपने में ही लीन रहो नित, कहीं न आओ जाओ।। भजन-४० लीजे रत्नत्रय धार, आतमा॥ १. सम्यकदर्शन रतन अमोलक, तीन लोक में सार..... २. सम्यक्ज्ञान की अनुपम महिमा, सुख शांति दातार..... ३. सम्यक्चारित्र मुक्ति का दाता, परमानन्द भंडार..... ४. पर से भिन्न स्वयं को लख लो, छूटे यह संसार..... ५. स्व का बोध ही सम्यक्ज्ञान है, कर दे बेड़ा पार..... ६. अपने में ही लीन रहो नित, यही मोक्ष का द्वार..... ७. ज्ञानानन्द स्वभावी आतम, गुरू तारण रहे पुकार..... ८. संयम तपकी करो साधना, करो साधु पद स्वीकार..... आध्यात्मिक भजन DOC भजन-४१ वह भी पर्याय थी, यह भी पर्याय है। तू तो है परम ब्रह्म, काहे भरमाय है। देखना और जानना,फकत तेरा काम है। विष्णु बुद्ध शंकर, महावीर तेरा नाम है। पर को क्यों देखने में, व्यर्थ भटक जाय है...तू..... २. अपने को देखो बस, अपने को जानो। पर को न देखो,न कुछ अपना मानो। अपनी अज्ञानता से, व्यर्थ दुःख उठाय है...तू..... ३. जो कुछ भी होता जाता, पुद्गल पर्याय है। तेरी ही दृष्टि से, कर्म बंध जाय है। अपने में लीन रहो तो, मुक्ति पाय है...तू..... ४. तत्समय की योग्यता से,सभी क्रम चल रहा। अपने उदयानुसार, सब कर्म गल रहा। ज्ञानानन्द मय रह सदा, तू क्यों पछताय है...तू..... द्रव्य दृष्टि रखो सदा, पर्याय मत देखो। जो कुछ भी होता है, अपना मत लेखो॥ अपना तो कुछ भी नहीं, तू क्यों भय खाय है...तू..... पर का कर्ता आत्मा नहीं, राग का भी कर्ता नहीं, राग से भिन्न ज्ञायक मूर्ति हूँ, ऐसी अन्तर में प्रतीति करना ही सम्यक्दर्शन प्राप्त करने की विधि है । ऐसा समय मिला है जिसमें आत्मा को राग से भिन्न कर देना ही कर्तव्य है, अवसर चूकना बुद्धिमानी नहीं। o

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