Book Title: Shravakachar
Author(s): Gyanand Swami
Publisher: Gokulchand Taran Sahitya Prakashan Jabalpur

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Page 277
________________ ७ श्री आचकाचार जी जत परिचय R OO व्रत परिचय व्रत पापों के त्याग को व्रत कहते हैं। अणुव्रत महाव्रत पाँच अणुव्रत तीन गुणव्रत चार शिक्षाव्रत पाँच महाव्रत पाँच समिति अहिसाणुव्रत सत्याणुव्रत अचौर्याणुव्रत ब्रह्मचर्याणुव्रत परिग्रह प्रमाण अणुव्रत दिग्द्रत देशव्रत अनर्थदण्ड व्रत सामायिक प्राषधोपवास भोगोपभोग परिमाण अतिथिसंविभाग अहिसा महाव्रत सत्य महाव्रत अचौर्य महाव्रत ब्रह्मचर्य महाव्रत अपरिग्रह महाव्रत ईर्या समिति भाषा समिति ऐषणा समिति आदान निक्षेपण समिति प्रतिष्ठापन समिति तीन गुप्ति मन गुप्ति वचन गुप्ति काय गुप्ति । पापों का एकदेश (आंशिक , निष्प्रयोजनीय पापों का )त्याग अणुव्रत __कहलाता है। । जो अणुव्रतों में गुणाकार रूप से वृद्धि करें उन्हें गुणव्रत कहते हैं। । जो साधु पद की शिक्षा देवें उन्हें शिक्षाव्रत कहते हैं। । चतुर्थ गुणस्थानवर्ती श्रावक अव्रती और पंचम गुणस्थानवर्ती श्रावक देशव्रती होता है। → आत्म श्रद्धान पूर्वक संयम तप व्रतादि का पालन करना, निश्चय-व्यवहार से समन्वित मोक्षमार्ग पर चलना, आत्म कल्याण के लक्ष्य पूर्वक धर्म की साधना आराधना करना ही अपने लिये कल्याण कारी है। पापों का सर्वदेश पूर्णत: त्याग करने को महाव्रत कहते हैं। । सम्यक् प्रकार से प्रवृत्ति करते हुए जीवों की रक्षा करना समिति है। । निश्चय से अपने स्वरूप में गमन परिणमन करना समिति है। । जसके बल से संसार के कारणों से आत्मा का गोपन अर्थात् रक्षा होती है ___ वह है। अपने आत्म स्वरूप में गुप्त रहना ही गुप्ति है। । छटवें गुणस्थान तथा उससे ऊपर सभी महाव्रती साधु होते हैं। । इन्द्रियों में रसना, कर्मों में मोहनीय कर्म, व्रतों में ब्रह्मचर्य व्रत और गुप्तियों में मन गुप्तियह चारों ही बड़े पुरुषार्थ से सिद्ध होते हैं। इंद्रिय और कषायों को जीतने वाला ही सच्चावीर पुरुष होता है। हिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिगहेभ्यो विरतिक्तम् - हिंसा, असत्य, चोरी, अब्रह्म और परिगह से विरत होना हीवत है।

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