Book Title: Shravakachar
Author(s): Gyanand Swami
Publisher: Gokulchand Taran Sahitya Prakashan Jabalpur

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Page 272
________________ COश्री बावकाचार जी (वैराग्यं त्रितियं सुद्धं) जिन साधुओं को संसार, शरीर, भोग तीनों से पूर्ण प्राप्त नहीं होती। इस प्रकार साधु का सकल संयम यथाख्यात चारित्र अर्थात् रत्नत्रय वैराग्य हो गया, जिन्होंने (संसारे तजंति तृनं) संसार का मोह तृण के समान जानकर की पूर्णता को प्राप्त कराता है। यद्यपि अष्टकर्मों कीनाशक रत्नत्रय की एकता एकदेश छोड़ दिया है (भूषन रयनत्तयं सुद्ध) शुद्ध रत्नत्रय ही जिनके आभूषण हैं (ध्यानारूढ़ श्रावक को भी होती है तथापि पूर्णता मुनि अवस्था में ही होती है। यह रत्नत्रय की स्वात्म दर्सन) ऐसे साधुध्यान में आरूढ़ रहते हुए अपने आत्मा का अनुभव करते हैं। पूर्णता मोक्ष की कारण मोक्ष स्वरूप है, संसार परिभ्रमण की नाशक है। विशेषार्थ- सम्यकदर्शन से रहित बाह्य आचरण रूप जो मुनिव्रत साधुपद जो जीव मोक्ष को प्राप्त हुए, वर्तमान में हो रहे हैं अथवा आगामी काल में धारण करते हैं ऐसे मिथ्यादृष्टि जीवों के बहुधा अशुभ उपयोग रहता है. कदाचित होवेंगे यह सब इसी सम्यक्दर्शन, ज्ञान, चारित्र की एकता का महात्म्य है। रत्नत्रय किसी के मन्द कषाय से शुभोपयोग भी हो तो सम्यक्त्व के बिना निरतिशय पुण्य बंध ही आत्मा का स्वभाव है, यही तीन लोक में पूज्य है। रत्नत्रय की एकता के बिना का कारण होता है, जो किंचित् सांसारिक (इन्द्रिय जनित) देवगति की सुख संपदा कोटियत्न करने पर भी मुक्ति की प्राप्ति नहीं होती। जितना कुछ क्रिया आचरण है का नाटक दिखाकर अंत में फिर अधोगति का पात्र बना देता है, ऐसा निरतिशय पुण्य वह सब इसी रत्नत्रय के सहकारी होने से धर्म कहलाता है। यह रत्नत्रय की एकता ही मोक्षमार्ग में सहकारी नहीं होता। 3 अद्भुत रसायन है जो जीव को अजर-अमर परमात्मा बना देती है। इस पूज्य जिस जीव के काललब्धि की निकटता से तत्व विचार पूर्वक आत्मानुभव या रत्नत्रय की एकता को हमारा बारम्बार नमस्कार है और यह हमारे हृदय में सदा सम्यक्दर्शन हो जाता है, उसी के सातिशय पुण्य बंध का कारण सच्चा शुभोपयोग विकासमान रहे ऐसी पवित्र भावना सहित साधु ध्यान में आरूढ रहते हैं, जिससे होता है। इस सम्यक्त्व सहित शुभोपयोग के अभ्यंतर ही दही में मक्खन की तरह रिजुमति और विपुलमति मन: पर्यय ज्ञान प्रगट हो जाता है जो केवलज्ञान को उत्पन्न शुद्धोपयोग की छटा झलकती है। ज्यों-ज्यों संयम बढ़ता जाता है त्यों-त्यों उपयोग करता है। विपुलमति मन: पर्यय ज्ञान तद्भव मोक्षगामी जीव को ही होता है, यह निर्मल होता जाता है अर्थात् शुद्धोपयोग की मात्रा बढ़ती जाती है। यह शुद्धोपयोग 6 दूसरे के मन में तिष्ठे हुए वर्तमान काल के, भूत व भविष्य काल के पदार्थों को भी का अंकुर चौथे गुणस्थान से शुभोपयोग की छाया में अव्यक्त बढ़ता हआ सातवें जान सकता है। संसार असार है. दु:खों का घर है. जन्म-जरा. रोग से पीडित है। गुणस्थान में व्यक्त हो जाता है। यहां पर अव्यक्त मंद कषायों के उदय से किंचित शरीर अशुचि है, नाशवान है। भोग, रोग के समान आताप को बढ़ाने वाले हैं इस मलिन होने पर भी यद्यपि इसे द्रव्यानुयोग की अपेक्षा शुद्धोपयोग कहा है क्योंकि १२ प्रकार समझकर संसार,शरीर, भोगों से जो पूर्ण वैराग्यवान हुए, जिन्होंने संसार को छद्मस्थ के अनुभव में उस मलिनता का भान नहीं होता तथापि यथार्थ में दसवें5 तृण के समान जानकर छोड़ दिया,शुद्ध रत्नत्रय को आत्मा का आभूषण बनाया और गुणस्थान के अनन्तर ही कषायों के उदय के सर्वथा अभाव होने से यथाख्यात चारित्र अपने आत्मा के दर्शन ज्ञान ध्यान में लीन रहते हैं वही सच्चे साधु हैं,जो संसार से रूप सच्चा शुद्धोपयोग होता है। । पार होकर अरिहन्त और सिद्ध पद को प्राप्त करते हैं। यह स्पष्ट ही है कि अशुभोपयोग पापबंध का कारण,शुभोपयोग पुण्य बंध का इस प्रकार शुद्ध रत्नत्रय से परिपूर्ण साधु अनंत चतुष्टयमयी केवलज्ञान प्रगट कारण और शुद्धोपयोग बंध रहित (संवर पूर्वक) निर्जरा एवं मोक्ष का कारण है। इस * करने की भावना के साथ श्रेणी का आरोहण करते हैं उन्हें आठवें गुणस्थान से शुद्धोपयोग की पूर्णता निर्ग्रन्थ साधु पद धारण करने से ही होती है; इसलिये मुनिव्रत चौथी अरिहन्त पदवी प्रगट हो जाती है, इसी बात को आगे कहते हैंमोक्ष का असाधारण कारण है। जिस प्रकार श्रावक को बारह व्रत निर्दोष पालने से 5 केवलं भावनं कृत्वा,पदवी अर्हन्त सार्धयं । उसके कर्तव्य की पूर्णता होती है, उसी प्रकार मनिको पाँच महाव्रत. पाँच समिति. चरनं सुख समयं च,नंत चतुस्टय संजुतं ॥ ४५६ ।। तीन गुप्ति रूप तेरह प्रकार का चारित्र निर्दोष पालन करने से साधु के कर्तव्य की सिद्धि अर्थात् शुद्धोपयोग की उत्पत्ति होती है। इस प्रकार तेरह प्रकार के चारित्र में से साधओ साधु लोकेन, तव व्रत क्रिया संजुतं । यथार्थ में तीन गुप्ति का पालन करना साधु का मुख्य कर्तव्य है, यह गुप्ति ही मोक्ष साधओ सुद्धध्यानस्य, साधओ मुक्ति गामिनो।। ४५७॥ की दाता, मोक्ष स्वरूप है। जब तक इनकी पूर्णता न हो, तब तक निष्कर्म अवस्था अन्वयार्थ- (केवलं भावनं कृत्वा) साधु केवलज्ञान प्राप्ति की भावना भाते हैं. २६२

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