Book Title: Shravakachar
Author(s): Gyanand Swami
Publisher: Gokulchand Taran Sahitya Prakashan Jabalpur

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Page 228
________________ PU0 श्री आचकाचार जी गाथा-३६५,३६६ doo आत्मा के मनोगुप्ति नहीं हो सकेगी। रहना अर्थात् मच्छर, मख्खी आदि को भगाना या उनको दूर करने का चिन्तन मनोगुप्ति का स्वरूप तीन प्रकार से कहा है -१. रागादि की निवृत्ति, करना, यह कायगुप्ति के अतिचार हैं। २. आगम का अभ्यास, ३. सम्यध्यान। पापों का सर्वदेश त्याग - महाव्रत,जीवन जीने के लिये- सम्यक्प्रवृत्ति पाँच मनोगुप्ति के अतिचार- आत्मा की राग-द्वेष, मोह रूप परिणति, शब्द समिति ; और कर्मों के आने के द्वार को बंद करने के लिये यह तीन गुप्तियाँ हैं। विपरीतता, अर्थ विपरीतता और ज्ञान विपरीतता तथा दुष्प्रणिधान अर्थात् आर्त-रौद्र इस प्रकार तेरह विधि चारित्र का पालन करता हुआ साधक पात्र जीव सच्चे रूप ध्यान या ध्यान में मन न लगाना, यह मनोगुप्ति के यथायोग्य अतिचार हैं। देव निज शुद्धात्मा के ध्यान में लीन होता है यही सच्ची देवपूजा, देवत्व पद का २. वचन गुप्ति-कठोर आदि वचनों का त्याग अथवा मौन रूप रहना वचन साधन है। गुप्ति है। पाप के हेतु स्त्रीकथा, राजकथा, चोरकथा, और भोजनकथा न करने को ! पचहत्तर गुन वेदंते,सार्धं च सुद्धं धुवं । तथा अलीक (विपरीत अर्थ या दूसरों के दुःख के हेतु शब्द) आदि वचनों की निवृत्ति पूजतं स्तुतं जेन, भव्यजन सुद्ध दिस्टितं ॥ ३६५॥ वचनगुप्ति है। एतत् गुन सार्धं च, स्वात्म चिंता सदा बुधै। वचन गुप्ति के अतिचार- कर्कश आदि वचन,मोह और संताप का कारण होने से विष के तुल्य हैं। उसका श्रोताओं के प्रति बोलना और स्त्री.राजा,चोर और देवं तस्य पूजस्य, मुक्ति गमनं न संसयः॥३॥६॥ भोजन विषयक विकथाओं में, मार्ग विरुद्ध कथाओं में आदरभाव तथा हुंकार आदि अन्वयार्थ- (पचहत्तर गुन वेदंते) जो इन पचहत्तर गुणों का अनुभवन, क्रिया अर्थात् हूँ हूँ करना,खखारना, हाथ से या भौंह के चालन से इशारा करना यह चिन्तन-मनन करते हैं (सार्धं च सुद्धं धुवं) अपने शुद्ध और ध्रुव स्वभाव की साधना वचन गुप्ति के यथायोग्य अतिचार हैं। S करते हैं (पूजतं स्तुतं जेन) जो इन पचहत्तर गुणों का आराधन आचरण रूप पूजन ३. काय गुप्ति-शरीर से ममत्व के त्याग रूप स्वभाव वाली अथवा हिंसा, और स्तुति करते हैं(भव्यजन सुद्ध दिस्टित) वह भव्यजन शुद्ध दृष्टि होते हैं। मैथुन और चोरी से निवृत्ति रूप स्वभाव वाली अथवा सर्व चेष्टाओं से निवृत्ति रूप (एतत् गुन सार्धं च) इस प्रकार इन पचहत्तर गुणों की साधना और (स्वात्म वाली कायगुप्ति है। औदारिक आदि शरीर की जो क्रिया है, उससे निवृत्ति शरीर गुप्ति चिंता सदा बुधै) स्वात्मा की चिंता अर्थात् अपने आत्म कल्याण की भावना ज्ञानीजन है। काय शब्द से काय संबंधी क्रिया ली जाती है, उसकी कारणभूत आत्मा की क्रिया हमेशा करते हैं (देवं तस्य पूजस्य) वही देव की सच्ची पूजा करते हैं (मुक्ति गमनं न को काय क्रिया कहते हैं उसकी निवृत्ति कायगुप्ति है;अथवा कायोत्सर्ग अर्थात् शरीर संसय:) वह मोक्षगामी हैं अर्थात् वे स्वयं अरिहंत,सिद्ध परमात्मा बनेंगे, इसमें कोई को अपवित्रता, असारता और विपत्ति का मूल कारण जानकर उससे ममत्वन करना संशय नहीं है। कायगुप्ति है। बांधना, छेदन, मारण, हाथ-पैर का संकोच विस्तार आदि काय क्रिया विशेषार्थ- यहाँ शुद्ध षट्कर्म में सच्ची देवपूजा का स्वरूप क्या है ? इसके की निवृत्ति व्यवहार से कायगुप्ति है। काय क्रिया निवृत्ति या कायोत्सर्ग कायगुप्ति है। अन्तर्गत पचहत्तर गणों का वर्णन किया गया है। ७५ गुण इस प्रकार हैं-५परमेष्ठी, कायगुप्ति के तीन लक्षण कहे हैं ३१६ कारण भावना, ८ सिद्ध के गुण, १०धर्म, ३ रत्नत्रय,८ सम्यक्दर्शन के अंग, १. कायोत्सर्ग, २. हिंसादि का त्याग, ३. अचेष्टा। ८ सम्यक्ज्ञान के अंग, ४ अनुयोग और १३ प्रकार चारित्र इन पचहत्तर गुणों के काय गुप्ति के अतिचार-कायोत्सर्ग संबंधी बत्तीस दोष हैं, यह शरीर मेरा है आराधन रूप स्तुतिमनन आचरण रूप पूजन करते हैं, वह भव्यजीव शुद्ध सम्यकदृष्टि इस प्रकार की प्रवृत्ति, जनसमूह के बीच एक पैर से खड़े होकर कायोत्सर्ग आदि होते हैं. जो निश्चय ही मोक्षगामी हैं अर्थात् इन गुणों का पालन कर स्वयं परमात्मा । करना तथा जहाँ जीव जंतुकी बहुतायत हो, स्त्रियों आदि का बाहुल्य हो, धनादि की देवाधिदेव अरिहंत सिद्ध परमात्मा होंगे, यही देव की सच्ची पूजा है। जो सम्यकदृष्टि विशेषता हो, ऐसे स्थान पर रहना तथा अपध्यान सहित शरीरादि परीषह से दूर अव्रत दशा में इस लक्ष्य और भावना से इन गुणों का आराधन और आचरण रूप

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