Book Title: Shravakachar
Author(s): Gyanand Swami
Publisher: Gokulchand Taran Sahitya Prakashan Jabalpur

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Page 230
________________ ७७७ श्री आवकाचार जी जाये वही शुद्ध स्वाध्याय है। अपने शुद्धात्म स्वरूप ज्ञानानन्द स्वभाव का अनुभव करना ही शुद्ध स्वाध्याय है। स्वाध्याय का प्रयोजन संसार से वैराग्य तथा निज स्वरूप की प्राप्ति का उत्साह है। स्वाध्याय के पांच भेद हैं- १. वाचना सत्शास्त्रों को पढ़ना, २. पृच्छना - विशेष ज्ञानियों से पूछना, तत्वचर्चा करना, ३. अनुप्रेक्षा- तत्व निर्णय का बार-बार विचार कर हृदय में धारण करना, ४ . आम्नाय शुद्ध शब्द और अर्थ को कंठस्थ करना, ५ . धर्मोपदेश- अन्य जीवों को धर्म का यथार्थ स्वरूप बताना । स्वाध्याय का प्रत्यक्ष लाभ- चित्त में शांति, मन से शोक, भय, क्रोध, मान आदि कषायों का शांत हो जाना, संसार का स्वरूप जानकर वैराग्य भाव होना, समस्त जीवों के प्रति क्षमा, करुणा मैत्री भाव का होना है। वही शुद्ध स्वाध्याय है जिससे आत्म कल्याण करने की भावना बलवती होवे तथा मन, वचन, काय एकाग्र हो जायें। मन, वचन, काय का निरोध अर्थात् हलन चलन बंद होने से उपयोग अपने शाश्वत ध्रुव स्वभाव में स्थिर होता है। स्वाध्याय परम तप है तथा अंत: करण के क्लेश और कुभावों को दूर करने के लिये स्वाध्याय परम आवश्यक है। - आगे शुद्ध संयम का स्वरूप कहते हैं - संजमं संजर्म कृत्वा, संजमं द्विविधं भवेत् । इन्द्रियानां मनोनाथा, रष्यनं त्रस थावरं ॥ ३७१ ॥ संजमं संजमं सुद्धं, सुद्ध तत्व प्रकासकं । तिअर्थ न्यान जलं सुद्धं, स्नानं संजमं धुवं ।। ३७२ ।। अन्वयार्थ - (संजमं संजमं कृत्वा) संयम-यम नियम का पालन करने को कहते हैं (संजमं द्विविधं भवेत्) संयम दो प्रकार का होता है- १. इन्द्रिय संयम, २. प्राणी संयम (इन्द्रियानां मनोनाथा) पांच इन्द्रिय और इनके राजा मन को वश में रखना इन्द्रिय संयम है ( रष्यनं त्रस थावरं ) पांच स्थावर और दो इन्द्रिय से पांच इन्द्रिय तक त्रस जीवों की रक्षा करना प्राणी संयम है। (संजमं संजमं सुद्धं) शुद्ध संयम अपने स्वरूप की सुरत रखना, ज्ञान भाव में रहना है (सुद्ध तत्व प्रकासकं) जो शुद्धात्म तत्व को प्रकाशित करने वाला है (तिअर्थं न्यान जलं सुद्धं) रत्नत्रयमयी ज्ञान के शुद्ध जल में (स्नानं संजमं धुवं ) स्नान करना ही निश्चय व निश्चल संयम है। SYARAT YANAT YEAR ARAS YEAR. २०९ गाथा-३७१,२७२ विशेषार्थ- शुद्ध षट्कर्म के अंतर्गत संयम का स्वरूप बताया जा रहा है। संयम - व्रत, यम-नियम के पालन को कहते हैं, जो कार्य अन्याय और पापमय है, जैसे- जुआं आदि सात व्यसन, हिंसादि पांच पाप, अभक्ष्य भोजन तथा अन्याय और अनीति पूर्वक विषय आदि का सेवन इनका आजीवन के लिये त्याग करना यम कहलाता है । समयावधि के लिये त्याग करना नियम कहलाता है। सदाचारी जीवन ही संयम है, जो भोग-उपभोग का प्रमाण कर लेता है वह संयमी है। निम्न १७ नियमों का नित्य ही प्रमाण करना चाहिये भोजने पद से पाने, कुंकुमादि विलेपने । पुष्प तांबूल गीतेषु नृत्यादौ ब्रह्मचर्य के ॥ स्नान भूषण वस्त्रादौ वाहने शयनासने । सचित वस्तु संख्यादी प्रमाणं भज प्रत्यहं ॥ - . १. भोजन, २. षट्रस - दूध, दही, घी, तेल, नमक, मीठा, ३. पानी पीना, ४. कुंकुमादि विलेपन, ५. पुष्प, ६. ताम्बूल, ७. गीत, ८. नृत्य, ९. ब्रह्मचर्य, १०. स्नान, ११. भूषण, १२ वस्त्र, १३. वाहन, १४. शयन, १५ आसन, १६. सचित्त वस्तु, १७. वस्तु संख्या । इनका प्रतिदिन, समयावधि या जीवन पर्यंत के लिये प्रमाण कर शेष का त्याग करना संयम कहलाता है। संयम के दो भेद हैं- १. इन्द्रिय संयम- पांच इन्द्रिय और मन को अपने आधीन रखकर सदा ही उपयोगी कार्यों में लगाये रखना, व्यर्थ भोगोपभोग और संकल्प विकल्प नहीं करना, इनको सीमित संयमित रखना जिससे स्वस्थ्य रहें और धर्म साधना में सहयोगी सहायक हों यह इन्द्रिय संयम है । २. प्राणी संयम- पांच स्थावर मिट्टी, पानी, अग्नि, हवा और वनस्पति का उपयोग प्रयोजन से अधिक नहीं करना, हर एक कार्य देखभाल कर करना, नीचे देखकर चलना, किसी भी वस्तु को देखकर उठाना धरना जिससे जीवों की हिंसा न हो। पशुओं को सताना नहीं, किसी मनुष्य के हृदय को दुखाना नहीं, प्रमादचर्या, निष्प्रयोजन पाप नहीं करना, समय को व्यर्थ नहीं गंवाना, यह सब व्यवहार द्रव्य संयम कहलाता है। इसके साथ शुद्ध संयम अर्थात् अपने स्वरूप की सुरत रखना, ज्ञानभाव में रहना भाव संयम है। इससे शुद्धात्म तत्व का प्रकाश होता है, कर्म क्षय होते हैं। रत्नत्रयमयी ज्ञान के शुद्ध जल में स्नान करना ही निश्चय संयम है अर्थात् अपने शुद्धात्म स्वरूप के अनुभव में लीन रहना, बारम्बार अवगाहन करना, डुबकी लगाना ही शुद्ध संयम है यही परम हितकारी

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