Book Title: Shravakachar
Author(s): Gyanand Swami
Publisher: Gokulchand Taran Sahitya Prakashan Jabalpur

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Page 244
________________ S 04 श्री आपकाचार जी गाथा-४०५ SO0 संसार के कारणों तथा मोक्ष के कारणों को नहीं जानता अथवा विपरीत जानता है या प्रतिमा तभी सही और सार्थक होगी जब यह सारी बातें जीवन में होंगी। संदेह युक्त जानता है इन पर जिनका दृढ़ विश्वास नहीं है और न व्रत धारण करने का दसलक्षण धर्म- दसलक्षण धर्म आत्मा के स्वभाव हैं। इन लक्षणों से आत्मा अभिप्राय समझता है, ऐसा मिथ्यात्वी पुरुष दूसरों की देखादेखी या और किसी के एक भाव की पहिचान होती है, प्रत्येक धर्म में जो उत्तम विशेषण लगा हुआ है वह अभिप्राय के वश व्रतों का पालन करने वाला अव्रती ही है। जो पुरुष तत्वश्रद्धानी ख्याति, लाभ, पूजा आदि की निवृत्ति के हेतु है तथा सम्यकदर्शन का प्रतीक, होकर आत्मकल्याण के अभिप्राय से व्रत धारण करता है, वही मोक्षमार्गी पापों का सम्यकद्रष्टि ज्ञानी के लिये है। त्यागी सच्चा व्रती कहलाता है। १.उत्तम क्षमा- सम्यक्ज्ञान पूर्वक दूसरों के अपराध को अपने में दण्ड देने जिसको यह मिथ्याशल्य लगी हो कि ऐसान होजाये उसेन धर्म का श्रद्धान की शक्ति होते हुए भी क्षमा करना, क्रोधित न होना उत्तम क्षमा है। है और न कर्म का विश्वास, वह मिथ्यादृष्टि ही है। २. उत्तम मार्दव- सम्यक्ज्ञान पूर्वक अपने पास ज्ञान, धन, ऐश्वर्य आदि २. माया शल्य-जिसके मन के विचार, वचन की प्रवृत्ति और काय की चेष्टा अभिमान के कारण होते हुए भी अभिमान न करना, विनय रूप सहज स्वभाव भिन्न-भिन्न हो, ऐसे पापों को गुप्त रखने वाले मायाचारी पुरुष का दूसरों को दिखाने सहजानंद में रहना उत्तम मार्दव है। अथवा मान बड़ाई लोभ आदि के अभिप्राय से व्रत धारण करना निष्फल है। वह ३. उत्तम आर्जव-सम्यकज्ञान पूर्वक मन, वचन, काय की कुटिलता को ऊपर से व्रती है परंतु अंतरंग में उसे पापों से घृणा नहीं है, आत्म कल्याण की भावना त्यागना नाम, दाम, काम की चाह न होना, सरल स्वभाव में रहना उत्तम आर्जव नहीं है इस कारण ढोंग वृत्ती होने से उसे उल्टा पाप का बंध होता है तथा तिर्यंच आदि है। नीच गति की प्राप्ति होती है। ४. उत्तम सत्य-पदार्थों का स्वरूपज्यों का त्यों जानना तथा सम्यक्ज्ञान जिसको यह माया शल्य लगी हो कि 'ऐसा नहीं ऐसा होता' वह कभी भी पूर्वक वस्तु के स्वरूप का ज्यों का त्यों वर्णन करना, धर्मानुकूल प्रिय, मधुर वचन निराकुल आनंद में नहीं रहता, जहां माया का पक्ष है वहां ब्रह्म के दर्शन नहीं हो। बोलना,धर्म को हानि या कलंक लगाने वाला वचन न बोलना उत्तम सत्य है। सकते। ५. उत्तम शौच-सम्यक्ज्ञान पूर्वक आत्मा को कषायों द्वारा मलिन न होने ३. निदान शल्य-जो पुरुष आगामी सांसारिक विषय भोगों की वांछा के देना, सदा निर्मल रखना तथा लोभ का त्याग कर संतोष रूप रहना उत्तम शौच है। अभिप्राय से व्रत धारण करता है, वह यथार्थ में व्रती नहीं है ; क्योंकि व्रत धारण ६.उत्तम संयम-सम्यक्ज्ञान पूर्वक इन्द्रियों और मन को विषयों से रोकना करने का प्रयोजन तो सांसारिक विषय भोगों अथवा आरम्भ-परिग्रह से विरक्त होकर और षट्काय के जीवों की रक्षा करना, समदृष्टि होकर हमेशा अपने स्वरूप की सुरत आत्म स्वरूप में उपयोग स्थिर करने का है ; परन्तु निदान बन्ध करने वाला उल्टा ९ रखना उत्तम संयम है। । पापों के मूल विषय-भोगों की तीव्र इच्छा करके उनकी पूर्ति के लिये ही व्रत धारण 3 ७. उत्तम तप- सांसारिक विषयों में इच्छा रहित होकर शरीर से निर्ममत्व करता है अतएव ऐसे पुरुष के बाह्य व्रत होते हुए भी अंतरंग तीव्र लोभ कषाय होने के होने के लिये अनशन (उपवास),ऊनोदर (अल्प आहार), व्रत परिसंख्यान (अटपटी कारण पाप का ही बंध होता है। आंकड़ी लेना),रस परित्याग (दूध, दही, घी, तेल,नमक,मीठा इन रसों में से एक जिसको यह निदान शल्य लगी हो कि 'ऐसा करता ऐसा करूंगा' वह संसारासक्त या अधिक छोड़ना), विविक्त शय्यासन (एकांत स्थान में सोना बैठना),काय क्लेश अज्ञानी मिथ्यादृष्टि है यथार्थ में उपर्युक्त तीनों शल्यों के त्याग होने पर ही व्रत धारण (शरीर से शीत ऊष्ण आदि परीषह सहना) यह छह बाह्य तप हैं। हो सकते हैं अन्यथा नहीं। प्रायश्चित, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग (शरीर से ममत्व का त्याग) शल्य रहित होने पर ही स्वात्म दर्शन की साधना हो सकती है इसके लिये और ध्यान यह छह अंतरंग तप हैं। यह बारह प्रकार का तप करना अर्थात् इनके द्वारा दसधर्म और बारह भावनाओं का अपने में सद्भाव समावेश होना आवश्यक है। व्रत आत्मा को तपाकर निर्मल करना, कर्म रहित करना, अपने स्वरूप में स्थित होना, र २२३

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