Book Title: Shravakachar
Author(s): Gyanand Swami
Publisher: Gokulchand Taran Sahitya Prakashan Jabalpur

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Page 259
________________ You श्री आचकाचार जी गाथा-४२६.४२९ LOO करता हो वही ब्रह्मचर्य प्रतिमाधारी श्रावक कहा जाता है। (दुर्गतिं दुष भाजन) वह दुःख भोगते हैं और दुर्गति के पात्र बनते हैं। ८.आरंभ त्याग प्रतिमा (आरंभंपरिग्रहं दिस्टा) जो आरंभ और परिग्रह को ही देखते रहते हैं (अनंतानंत जो श्रावक हिंसा से अति भयभीत होकर आरम्भ अर्थात् जिन क्रियाओं में . चिंतये) और उसकी अनंतानंत चिंतायें किया करते हैं (ते नरा न्यान हीनस्य) वे षट्काय के जीवों की हिंसा हो, परिणामों में विकलता उत्पन्न करने वाला जानकर मनुष्य ज्ञान से हीन होते हैं (दुर्गति पतितं न संसयः) और दुर्गति में जाते हैं इसमें गृह सम्बंधी सम्पूर्ण आरंभ स्वयं नहीं करता और न दूसरों से कराता वह आरंभ त्यागकोई संशय नहीं है। प्रतिमाधारी है; परन्तु धर्म के नाम पर मठ मंदिर बनवाता है और आरंभ की धार्मिक विशेषार्थ-यहां आठवीं आरम्भ त्याग प्रतिमा का स्वरूप कहते हैं। आरंभ, क्रियायें करता, कराता है तो वह ज्ञानहीन दुर्गति का पात्र है, इस बात को पहले , मन के पसरने को कहते हैं। सातवीं प्रतिमा तक पांचों इन्द्रियों का संयम हुआ, अब बताते हैं ! जिसके मन का संयम हो जाता है और जो शुद्ध भाव का धारी होता है वह आरम्भ आरंभं मन पसरस्य, दिटं अदिस्ट संजुतं । त्याग प्रतिमाधारी होता है; क्योंकि मन, देखे-अनदेखे नाना प्रकार के कार्यों का निरोधनं च कृतं तस्य, सुद्ध भावं च संजुतं ॥ ४२६॥ * विचार करता रहता है और नये-नये प्रपंचों में उलझाता है। घर-परिवार का पापारम्भ र छोड़ दिया, पांचों इन्द्रियों का संयम कर लिया; परंतु यदि मन का संयम न हुआ तो अनृत अचेत असत्यं, आरंभं जेन क्रीयते। यह शुभ राग के चक्कर में उलझाता है। धर्म के नाम पर मंदिर, तीर्थ, धर्मशालायें जिन उक्तं न दिस्टंते, जिनद्रोही मिथ्या तत्परा ॥ ४२७॥ बनवाना, पूजा-पाठ,प्रतिष्ठा करवाना,धन-वैभव इकट्ठा करना, सामाजिक कार्यों अदेवं अगुरं जस्य , अधर्म क्रियते सदा। " में आगे आना, समाज की सेवा धर्म प्रचार के नाम पर अपनी मनमानी करना, पाप विस्वासं जेन जीवस्य, दुर्गतिं दुष भाजनं ॥४२८॥ करते हुए पुण्य और धर्म मानता है, जिनवाणी को नहीं देखता, मनमानी करता है में वह जिनद्रोही मिथ्यात्व में तत्पर रहता है। जो साम्प्रदायिक बन्धनों में बंधकर आरंभं परिग्रहं दिस्टा, अनंतानंत चिंतये। 3 अदेव, अगुरु, अधर्म का सेवन करता है. नाना प्रकार के क्रिया कांडों में लगा रहता ते नरा न्यान हीनस्य,दुर्गति पतितं न संसयः॥४२९॥ है तथा अन्य सामाजिक प्राणियों को उनमें उलझाता है, जो जीव ऐसे त्यागी अन्वयार्थ- (आरंभं मन पसरस्य) आरंभ-मन का फैलाव होता है (दिस्टर प्रतिमाधारियों का विश्वास करते हैं वह दुःख भोगते और दुर्गति के पात्र बनते हैं। जो अदिस्ट संजुतं) जो देखे हुए और बिना देखे हुए दुनिया भर के कार्यों में लगा रहता है जीव अपने घर को छोड़कर आरंभ त्याग कर त्यागी हो जाते हैं परन्तु मन का संयम (निरोधनं च कृतं तस्य) जो उसके कार्य, बाहर की क्रिया और अंतर के विचारों का न होने तथा ज्ञानहीन होने से धर्म और समाज के नाम पर विशेष आरम्भ और परिग्रह निरोध कर देता है (सुद्ध भावं च संजुतं) और शुद्ध भाव में लीन रहता है वह आरंभई का फैलाव फैलाते हैं तथा उसकी ही अनन्त चिंताओं में लगे रहते हैं ऐसे ज्ञानहीन त्याग प्रतिमाधारी है। 8 अज्ञानी त्यागी व्रती दुर्गति में जाते हैं इसमें कोई संशय नहीं है। (अनृत अचेत असत्यं) नाशवान अचेतन-धन, वैभव, मकान, मंदिर, मठ मन के वश में न होने से मन के फैलाव द्वारा जो जीव धर्म के नाम पर ९ आदिझूठे (आरंभंजेन क्रीयते) आरंभ को जो करता कराता है (जिन उक्तंन दिस्टंते) आरम्भ-परिग्रह में आसक्त हो जाता है, धन का लोलुपी हो जाता है वह सच्चे देव, जिनवाणी में क्या कहा है इसे नहीं देखता (जिनद्रोही मिथ्या तत्परा) वह जिनेन्द्र का गुरु,धर्म की श्रद्धा नहीं करता। वह रागी-द्वेषी कुदेव और चमत्कारिक प्रतिमायें द्रोही, जिनवाणी की विराधना करने वाला मिथ्यात्व में तत्पर रहता है। अदेव आदि तथा परिग्रहधारी और प्रपंची कुगुरु, अगुरु जो जिन धर्म के विपरीत (अदेवं अगुरंजस्य) जो अदेव अगुरु (अधर्मं क्रियते सदा) अधर्म की क्रियायें मिथ्यात्व का पोषण करते हैं व हिंसामयी क्रियाकांड को धर्म मानने लगते हैं तथा हमेशा करते रहते हैं (विस्वासं जेन जीवस्य) जो जीव ऐसे जीवों का विश्वास करते हैं अन्य जीवों को उपदेश देते हैं कि अमुक देव, देवी की पूजा करने से धनलाभ, २३८

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