Book Title: Shravakachar
Author(s): Gyanand Swami
Publisher: Gokulchand Taran Sahitya Prakashan Jabalpur

View full book text
Previous | Next

Page 260
________________ 04 श्री आपकाचार जी गाथा-४३०,४३१ Oo पुत्रलाभ,राज्यलाभ होगा। अमुक साधु की सेवा भक्ति करने से धन, पुत्र, राज्य का प्रवर्तता है। संसारी कार्यों का आरम्भ करना संसार के भ्रमण का कारण है और आत्म संरक्षण रहेगा। अमुक पूजा-पाठ, जप-तप, व्रत, यात्रा करने से धन, पुत्रादि का कार्य का आरम्भ अर्थात् धर्म ध्यान संसार के दु:खों से छुड़ाने वाला है, मोक्ष प्राप्त समागम होगा। इस प्रकार जो मिथ्यात्व के पोषक, जिनधर्म के द्रोही, विपरीत आचरण कराने वाला है। अविनाशी निर्वाण पद का साधन आत्म ध्यान है,जहां शुद्धात्मा का करने वाले कुगुरु अगुरु की सेवा भक्ति करते हैं, बात मानते हैं वह दुर्गति के पात्र बनते * अनुभव है वहीं रत्नत्रय स्वरूप निश्चय मोक्षमार्ग है। हैं;क्योंकि वह तो ज्ञानहीन अज्ञानी स्वयं दुर्गति जायेंगे ही परन्तु आप डुबन्ते पांडे ले आरम्भ त्यागी श्रावक सर्वसंकल्प-विकल्प और उनके कारणभूत संसारी कार्यों डूबे जिजमान' । अत: आत्म कल्याणार्थी जीव को इन सारी बातों का विवेक करते को छोड़कर निश्चित होकर अपने आत्म कल्याण में दत्त-चित्त रहता है। न स्वयं हुए अपनी पात्रता को देखते हुए आगे बढ़ना चाहिये। कोई पापारम्भ करता है, न कराता है, धर्म के नाम पर क्रियाकांड या सामाजिक जिसको अपनी शुद्ध दृष्टि का आरम्भ हो जाये, जो रत्नत्रय से शुद्ध अपने , व्यवस्थाओं में नहीं उलझता। जिसे भेदज्ञान तत्वनिर्णय हो गया है, अपने ब्रह्मस्वरूप शाश्वत ध्रुव स्वभाव की साधना में रत हो वही सच्चा आरम्भ प्रतिमाधारी है जो में रमण करने लगा है वही उदासीन वीतराग मार्ग का पथिक, आत्म ध्यान की शाश्वत पद को प्राप्त करेगा इसी बात को आगे कहते हैं साधना में रत मोक्षमार्गी आरम्भ त्याग प्रतिमाधारी है। इसके मन-वचन-काय, आरंभं सुख दिस्टी च,संमिक्तं सुद्धं धुवं । कृत-कारित से गृह सम्बंधी पापारंभ का त्याग होता है, अनुमोदना (अनुमति) का दर्सनं न्यान चारित्रं,आरंभं सुद्ध सास्वतं ॥४३०॥ त्याग नहीं होता। यदि पुत्रादि व कुटुम्बी घर के काम काज की अथवा व्यापार सम्बंधी सलाह पूछे तो सम्मति रूप उसके हानि-लाभ बता देवे परन्तु किसी काम आरंभं सुद्ध तत्वं, संसार दुष तिक्तयं । को करने की प्रेरणा न करे। मोज्यमार्ग च दिस्टते,प्राप्तं सास्वतं पदं ॥ ४३१ ॥ आरम्भ त्यागी, हिंसा से भयभीत हो, संतोष धारण कर धन-संपदा से ममत्व अन्वयार्थ- (आरंभं सुद्ध दिस्टी च) जिसकी शुद्ध दृष्टि की शुरुआत हो गई घटाता हुआ सर्व प्रकार के व्यापार धंधे करना छोड़ देता है, यह तीन प्रकार की हिंसा (संमिक्तं सुद्धं धुवं) जो निश्चय शुद्ध सम्यकदृष्टि है (दर्सनं न्यान चारित्र) जिसके का त्यागी होता है-संकल्पी, उद्योगी, आरम्भी। अत: धर्म के नाम पर भी कोई क्रिया दर्शन ज्ञान चारित्र की शुद्धि हो गई (आरंभं सुद्ध सास्वतं) वही शुद्ध शाश्वत आरम्भ कांड नहीं करता । मात्र शरीर की आवश्यकताओं का विवेक पूर्वक उदासीनता से त्याग प्रतिमा धारी है। पालन करता हुआ अपने आत्म ध्यान की साधना में संलग्न रहता है। (आरंभं सुद्ध तत्वं) शुद्ध तत्व का आरंभ, विचार, ध्यान साधना करना (संसार विशेष-अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की योग्यता देखकर ही व्रत प्रतिज्ञा, दुष तिक्तयं) संसार के दुःख से छुड़ाने वाला है (मोष्यमार्ग च दिस्टते) मोक्षमार्ग को धारण करना चाहिये; क्योंकि बिना अपनी पात्रता, योग्यता के त्यागी या प्रतिमाधारी दिखाने वाला है (प्राप्तं सास्वतं पदं) अविनाशी पद को प्राप्त कराने वाला है। होने से कुछ भी कल्याण नहीं होता। कषाय, ममत्व भाव तथा इनके बाह्य आलम्बनों विशेषार्थ- आरम्भ त्यागी श्रावक सम्यक्दृष्टि होता है, जो सर्व लौकिक आरंभ सा है जो सर्व लौकिक आरंभ को छोड़ने और विरागता के साधक कारणों को मिलाने से ही प्रतिमा धारण करने का पूर्ण क्रियाओं को महापाप का कारण समझकर छोड़ देता है। अपने शुद्धात्म भावों देता है। अपने शटात्म भावों यथार्थफल मिल सकता है। जिसकी दृष्टि और मार्ग बदल गया वह आरम्भ प्रतिमाधारी या की प्राप्ति का आरंभ अर्थात् धर्म ध्यान का आरंभ करता है, अपने निश्चय शुद्ध हा सम्यक्दर्शन के द्वारा वह रत्नत्रय की शुद्धि का यत्न करता रहता है, वह जानता है ९.परिग्रह त्याग प्रतिमा कि निश्चय रत्नत्रय, निज स्वभाव शुद्धात्मानुभूति में निमग्न रहना ही है, उसके 'मूच्छ परिग्रहः मूर्छा भाव परिग्रह है, पर के प्रति मूर्छा, पुद्गल आदि का निरंतर स्वात्मानुभव का अभ्यास रहता है, शुद्धात्मा के अनुभव में उपयोग को लगाने संग्रह विकल्पका कारण है। जो संकल्प-विकल्प रहित होकर अपने आत्म स्वरूप 2 का मुख्य आरम्भ करता है। हिंसामयी आरम्भ से बचता है, अहिंसा रूप आरम्भ में भाराम्भ करता है। हिंसामग्री आरम्भ से बचता है अहिंसा रूप आरम्भ में की साधना करता है वह परिग्रह त्याग प्रतिमाधारी है इसी बात को कहते हैं २३९

Loading...

Page Navigation
1 ... 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320